________________
तात्पर्य यह है कि पांचों इन्द्रियों से जो ज्ञान होता है वही पूर्ण ज्ञान कहलाता है। उसमें किसी, एक इन्द्रिय की न्यूनता होने से ज्ञान में कमी आ जाती है । फिर जिस समय केवलज्ञान होने पर राग-द्वेष का भली प्रकार दमन किया जाए, वही समय मोक्ष को देने वाला है।
अब जिह्वा के विषय में कहते हैं
परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवंति ते ।
से जब यहायई, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ २४ ॥ परिजीर्यति ते शरीरकं, केशाः पाण्डुरका भवन्ति ते । तज्जिह्वाबलं च हीयते, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥ २४॥
पदार्थान्वयः —–— परिजूर —–—–— सब प्रकार से जीर्ण हो रहा है, ते-तेरा, सरीरयं शरीर, केसा – केश, ते-तेरे, पंडुरया – सफेद, हवंति — हो रहे हैं, य - और, से - वह, जिब्भबले -- जिह्वा का बल, हाय — क्षीण हो रहा है, समयं – समय मात्र का भी, गोयम — हे गौतम! मा पमायए - प्रमाद मत करो।
मूलार्थ - हे गौतम! तेरा शरीर सर्व प्रकार से जीर्ण हो रहा है और तेरे केश श्वेत हो गए हैं एवं जिह्वा का बल भी क्षीण होता जा रहा है, इसलिए तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर ।
टीका - जिह्वेन्द्रिय के बलयुक्त होने पर ही स्वाध्याय आदि धर्म-कार्य भली प्रकार से हो सकते हैं। यदि रसनेन्द्रिय का बल क्षीण हो जाए तो शास्त्र- स्वाध्याय में बहुत कमी हो जाती है । शब्दों का उच्चारण भी भली प्रकार से नहीं हो सकता । अतः जिन जीवों को जिह्वेन्द्रिय का बल मिला है उनको उचित है कि वे उसे अपने वश में रखने का प्रयत्न करें और अपने जीवन के अमूल्य समय को प्रमाद में न खोकर केवल स्वाध्याय में लगाएं।
इसके अतिरिक्त जो स्वल्प भाषण करते हैं, उनकी जिह्वा में एक प्रकार की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। उनके मुख से यदि कोई स्वभावतः भी वाक्य निकल जाए तो वह भी मिथ्या नहीं होता तथा रोग और विवाद, जिह्वा को वश में न रखने से ही होते हैं । इसलिए जिह्वेन्द्रिय को वश में करने के लिए समय का किंचित् मात्र भी दुरुपयोग न करना चाहिए तथा भोजनादि के अवसर में तो उसे विशेष रूप से संयम में रखने का यत्न करना चाहिए ।
अब स्पर्शनेन्द्रिय के विषय में कहते हैं—
परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवंति ते । से फासबले य हायई, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ २५॥ परिजीर्यति ते शरीरकं, केशाः पाण्डुरका भवन्ति ते । तत् स्पर्शबलं च हीयते, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥ २५॥
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 366
दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं