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________________ पदार्थान्क्यः —– परिजूरइ — सर्व प्रकार से जीर्ण हो रहा है, ते-तेरा, सरीरयं— शरीर, य-और, ते – तेरे, केसा—केश, पंडुरया – सफेद, हवंति — हो रहे हैं, से - वह, चक्खुबले - चक्षुओं का बल, हाय — क्षीण हो रहा है, समयं - समय मात्र का भी, गोयम — हे गौतम! मा पमायए – प्रमाद मत करो । मूलार्थ - हे गौतम! तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, तेरे केश सफेद हो गए हैं और यौवनावस्था में जो आंखों का बल था वह भी अब क्षीण होता जा रहा है, अतः समय मात्र का भी तू प्रमाद मत कर । टीका श्रोत्र के बाद अब चक्षुर्बल की क्षीणता का वर्णन किया जाता है, जैसे श्रोत्र का बल कम होने से धर्म का श्रवण नहीं हो सकता, इसी प्रकार नेत्र का बल क्षीण होने पर भी धर्म-कार्यक सम्पादन नहीं हो पाता। नेत्रों की ज्योति के ठीक रहने पर ही मनुष्य अपनी लौकिक और पारलौकिक क्रियाओं को यथावत चला सकता है, अन्यथा नहीं। इसलिए जब तक शरीर स्वस्थ और चक्षु आदि इन्द्रियों का बल क्षीण नहीं होता, तब तक धर्म - कार्यों को बड़ी सावधानी से करना चाहिए। अतः विचारशील व्यक्तियों के लिए समय मात्र के लिए प्रमाद का सेवन करना उचित नहीं होता है । यद्यपि ज्ञान सदा प्रकाशस्वरूप है, तथापि मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणीय आवरणों से आवृत्त होने पर उसकी प्रकाशक शक्ति भी मंद हो जाती है। अब घ्राणेन्द्रिय के विषय में कहते हैं— परिजूरई ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवंति ते । से घाणबले यहांयई, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ २३ ॥ परिजीर्यति ते शरीरकं, केशाः पाण्डुरका भवन्ति ते । तघ्राण-बलं च हीयते, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥ २३ ॥ पदार्थान्वयः –—–— परिजूरइ—–— सर्व प्रकार से जीर्ण हो रहा है, ते — तेरा, सरीरयं—शरीर, केसा – केश, पंडुरया — सफेद, हवंति — हो रहे हैं, य― और, ते-तेरा, घाण-बले—प्राणबल, हायई हीन हो रहा है, गोयम — हे गौतम! समयं - समय मात्र का भी, मा पमाय — प्रमाद मत करो । से वह, मूलार्थ - हे गौतम! तेरा शरीर जीर्ण होता जा रहा है, केश सफेद हो रहे हैं और घ्राणेन्द्रिय का बल भी क्षीण होता चला जा रहा है, अतः समय मात्र का भी तू प्रमाद मत कर। टीका - यद्यपि व्यवहार - पक्ष में घ्राणेन्द्रिय की निर्बलता से कोई विशेष हानि उपलब्ध नहीं होती, परन्तु वास्तविक रूप में घ्राणेन्द्रिय की हानि भी ज्ञान की पूर्णता न होने देने में सहायक है, क्योंकि • सुगन्ध और दुर्गन्ध की पहचान में उसका ही विशेष उपयोग होता है। इसलिए घ्राणेन्द्रिय की निर्बलता से इन्द्रिय-जन्य ज्ञान में न्यूनता अवश्य रहती है। यदि ऐसा न हो तो एकेन्द्रिय जीव की शीघ्र ही मुक्ति होनी चाहिए। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 365 दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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