SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 367
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवंति ते । से सोयबले य हायई, समयं गोयम! मा पमायए ॥ २१ ॥ परिजीर्यति ते शरीरकं, केशाः पाण्डुरका भवन्ति ते | तच्छोत्रंबलं च हीयते, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥ २१॥ पदार्थान्वयः—परिजूरइ–सर्व प्रकार से जीर्ण हो रहा है, ते तेरा, सरीरयं—शरीर, य—और, ते तेरे, केसा—केश, पंडुरया—सफेद, हवंति–हो रहे हैं, से—वह, सोयबले श्रोत्रेन्द्रिय का बल, य—(समुच्चय के अर्थ में), हायई क्षीण होता जा रहा है, गोयम हे गौतम !, समयं—समय मात्र भी, मा पमायए—प्रमाद मत करो। ___मूलार्थ हे गौतम ! तेरा शरीर जीर्ण होता चला जा रहा है, तेरे काले केश अब सफेद हो रहे हैं वह जो श्रोत्र आदि इन्द्रियों का बल है वह भी अब क्षीण हो रहा है, इसलिए समय मात्र का भी प्रमाद मत करो। टीकागौतम स्वामी को लक्ष्य में रखकर जीव मात्र के शरीर की अनित्यता का प्रतिपादन करते हुए भगवान कहते हैं किद्य"हे गौतम ! तेरा शरीर इस समय सर्व प्रकार से जीर्ण होता चला जा रहा है, कारण कि आयु की हानि प्रति समय हो रही है। अतएव जो केश कल तक काले थे वे अब श्वेत होते जा रहे हैं और श्रुति (श्रोत्रेन्द्रिय) का बल भी क्षीण होता जा रहा है, इसलिए बुद्धिमान जनों को प्रमाद का सेवन कदापि नहीं करना चाहिए। यहां पर श्रोत्र का प्रधान रूप से उल्लेख करने का अभिप्राय यह है कि श्रोत्र के अस्तित्व पर ही अन्य सभी इन्द्रियों का अस्तित्व निर्भर है तथा इसकी प्रधानता इसलिये भी है कि इसकी उत्पत्ति अत्यन्त क्षयोपशम भाव से होती है एवं श्रुत-धर्म के श्रवण का साधन भी यही है। वृद्धावस्था के समीप आने पर इसका बल भी क्षीण हो जाता है, अर्थात् युवावस्था में इसके ज्ञान की जैसी निर्मलता रहती है, वृद्धावस्था में इसका ज्ञान निर्मल नहीं रह जाता। इसके अतिरिक्त गाथा में जो 'ते' शब्द का प्रयोग किया गया है उसका तात्पर्य प्रत्यक्ष अनुभव से है, अर्थात् 'ते' कहने से प्रत्यक्ष अनुभव होता है। तथा केशों का उल्लेख इसलिए किया गया है कि शरीर की सुन्दरता युवावस्था में काले केशों से प्रतीत होती है। इसलिए केशों के श्वेत होने का उल्लेख करके आयु की पूर्णता की निकटता का संकेत किया गया है श्रोत्र के बाद अब चक्षु इन्द्रिय के विषय में कहते हैं परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवंति ते । से चक्खुबले य हायई, समयं गोयम! मा पमायए ॥ २२ ॥ परिजीर्यति ते शरीरकं, केशाः पाण्डुरका भवन्ति ते | तच्चक्षुर्बलं च हीयते, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥ २२ ॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 364 | दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy