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यदि संक्षेप से कहें तो जीव में अजीव, अजीव में जीव, धर्म में अधर्म, अधर्म में धर्म, असाधु में साधु और साधु में असाधु बुद्धि का नाम ही मिथ्यात्व है । यही मिथ्यात्व इस जीव को संसार में परिभ्रमण करा रहा है। इसलिए विचारशील पुरुषों को धर्म - कार्यों के सम्पादन में कभी प्रमाद का सेवन नहीं करना चाहिए ।
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यदि किसी प्रकार धर्म में श्रद्धा हो भी जाए तो भी उसका शरीर द्वारा आचरण करना बहुत कठिन है, सो आब उसकी दुर्लभता का वर्णन करते हैं—
धम्मं पि हु सद्दहंतया, दुल्लहया काएण फासया । इह कामगुणेहिं मुच्छिया, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ २० ॥ धर्ममपि श्रद्दधतः, दुर्लभकाः कायेन स्पर्शकाः ।
इह कामगुणेषु मूर्च्छिताः, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ २० ॥
पदार्थान्वयः—धम्मं पि–धर्म में भी, हु – ( वाक्यालंकारार्थ में है), सद्दहंतया —– श्रद्धा करता हुआ, दुल्लहया — दुर्लभ है, कारण काया के द्वारा, फासया —– स्पर्श करना, इह — इस संसार में, कामगुणेहिं— काम - गुणों में, मुच्छिया — मूर्च्छित हैं, समयं – समय मात्र का भी, गोयम — हे गौतम, मा पमायए प्रमाद मत कर ।
मूलार्थ—धर्म में श्रद्धान होने पर भी धर्म का शरीर के द्वारा सेवन करना बहुत ही कठिन है, क्योंकि इस संसार में काम-गुणों में मूर्च्छित जीव अधिक देखे जाते हैं, अतः हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो ।
टीका - भगवान् कहते हैं कि बहुत से जीव सर्वज्ञ - कथित धर्म में श्रद्धा रखते हुए भी उसका . आचरण नहीं कर पाते, क्योंकि सांसारिक नानाविध वासनाओं में ही जीव आसक्त रहते हैं। इसलिए वे धर्माचरण के लिए उद्यत ही नहीं हो पाते।
यद्यपि सूत्रकार ने यहां पर केवल काय शब्द का उल्लेख किया है, तथापि वह मन और वचन का भी उपलक्षण है। इस जगत् में अधिक जीव प्रायः विषयों में ही आसक्त हो रहे हैं, अतः उनको सत्यधर्म का निश्चय यदि हो भी जाए तो भी मन, वचन और शरीर के द्वारा उसका अनुष्ठान नहीं कर पाते। जब तक धर्म को आचरण में न लाया जाए तब तक चारित्र-धर्म की प्राप्ति नहीं हो सकती और चारित्र-धर्म के बिना आत्म-शुद्धि का होना अशक्य है, इसलिए विवेकशील व्यक्तियों के लिए यही उचित है कि वे समय के सदुपयोग के लिए ही सर्वदा उद्यत रहें ।
यहां पर 'कामगुणेहिं' यह सप्तमी विभक्ति के अर्थ में तृतीया विभक्ति का प्रयोग है, तब इसका संस्कृत प्रतिरूप ‘कामगुणेषु मूर्च्छितः' यह समझना चाहिए ।
धर्म का सम्पादन, शरीर की शक्ति पर निर्भर है और शरीर की शक्ति अनित्य है, सदा स्थिर रहने वाली नहीं है। इसलिए विवेकशील जनों को सदा अप्रमत्त रहने का प्रयत्न करना चाहिए। अब इसी आशय को निम्नलिखित गाथा के द्वारा व्यक्त किया जाता है—
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 363 / दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं