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________________ तात्पर्य यह है कि अधिकतर लोग यश, ख्याति और विषय पूर्ति के लिए उनके अनुगामी बनकर पशु वध आदि हिंसक प्रवृत्तियों में अपने आपको लगा देते हैं एवं अनाप्त पुरुष प्रणीत आगमों में दृढ़ विश्वास रखने वाले होते हैं, इसलिए भगवान् कहते हैं कि हे गौतम! समय मात्र के लिए भी प्रमाद आचरण मत करो। अभिप्राय यह है कि कुतीर्थ की सेवा से यह जीव उत्तम धर्म की प्राप्ति से वंचित रह जाता है और विषय-वासनाओं में लिप्त होकर फिर से जन्म-मरण रूप संसार-चक्र में परिभ्रमण करने लग जाता है, क्योंकि कुतीर्थ की सेवा वीतरागदेव के सर्वोत्तम धर्म की प्राप्ति नहीं होने देती । अतः विचारशील पुरुष को धर्म के विषय में सदैव ही सावधान रहना चाहिए । यदि उस धर्म की प्राप्ति भी कदाचित् पुण्य के संयोग से हो जाए तो भी उसमें श्रद्धा का प्राप्त होना और भी कठिन है। अब इसी विषय का वर्णन करते हैं लद्धूण वि उत्तमं सुई, संद्दहणा पुरावि दुल्लहा । मिच्छत्तनिसेवए जणे, समयं गोयम ! मा पमायए || १६॥ लब्ध्वाप्युत्तमां श्रुतिं, श्रद्धानं पुनरपि दुर्लभम् । मिथ्यात्वनिषेवको जनो, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ १६॥ पदार्थान्वयः—लद्धूण वि—मिलने पर भी, उत्तमं — उत्तम, सुइं श्रुति के, सद्दहणा - तत्त्वज्ञान के प्रति श्रद्धा, पुणरावि – फिर भी, दुल्लहा — दुर्लभ है, मिच्छत्त - मिथ्यात्व के, निसेवए — सेवन करने वाले, जणे – जन, समयं - समय मात्र भी, गोयम —- हे गौतम! मा पमायए – प्रमाद मत करो । मूलार्थ — उत्तम धर्म - श्रुति के मिलने पर भी तत्त्व के प्रति श्रद्धा फिर भी दुर्लभ है, क्योंकि जगत् में मिथ्यात्व-सेवी जन बहुत अधिक देखे जाते हैं, अतः हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो। टीका–यदि पुण्य योग से किसी जीव को उत्तम धर्म के श्रवण का अवसर मिल भी जाए तो भी उसको तत्त्व-ज्ञान पर दृढ़ निश्चय होना अत्यन्त कठिन होता है, क्योंकि यह जीव अनादिकाल से अधिकतर मिथ्यात्व का सेवन ही करता चला आ रहा है और मिथ्यात्व के कारण से अधिकतर अनिष्ट कर्मों का उपार्जन करता है । इसीलिए उसकी रुचि तत्त्व श्रद्धान की ओर नहीं होती, अतः उत्तम धर्म-श्रुति के प्राप्त होने पर भी अधिक जीव मिथ्यात्व में ही प्रवृत्त रहते हैं । इस गाथा में यह भाव व्यक्त किया गया है कि अनादिकाल से मिथ्यात्व - वासना के कारण बहुत से जीवों में मोहनीयकर्म का विशिष्ट उदय होने से यथार्थ वस्तु तत्त्व पर उनका निश्चय ही नहीं ह पाता। वे उक्त कर्म के प्रभाव से वस्तु तत्त्व को मिथ्या प्रलाप ही समझते हैं। यद्यपि स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार वस्तु में नित्यत्व और अनित्यत्व ये दोनों ही धर्म पाए जाते हैं, परन्तु जो जीव निरपेक्षरूप से नित्य वस्तु को अनित्य और अनित्य को नित्य मानने लगता है उसका विचार, एकान्त रूप होने से मिथ्यात्व भाव में समाविष्ट हो जाता है और धीरे-धीरे वह इन्हीं एकान्त सापेक्ष विचारों का प्रचार करता हुआ अन्य जीवों को भी मिथ्यात्व में प्रविष्ट कर देता है। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 362 / दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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