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स्वस्थ पांचों इन्द्रियों का प्राप्त होना तो बहुत ही कठिन है, क्योंकि अधिकतर मनुष्यों में रोगादि के कारण प्रायः विकलेन्द्रियता — अंगों में विकृति अधिक देखी जाती है।
तात्पर्य यह है कि रोगादि के निमित्त से उनकी इन्द्रियां विकृत हो जाती हैं, जैसे कि अन्धा, बहरा और गूंगा आदि होना। इस कथन का अभिप्राय यह है कि शरीर के किसी भी अंग में विकृति होने से अर्थात् शरीर का कोई भी अंग बिगड़ जाने से मनुष्य पुरुषार्थहीन होकर धर्म-कार्यों के अनुष्ठान से वंचित रह जाता है। इसलिए धर्म - कार्यों के सम्पादन द्वारा मनुष्य जन्म को सार्थक करने के लिए शरीर का नीरोग और सम्पूर्ण होना अत्यन्त आवश्यक है । इसलिए भगवान् कहते हैं कि समय मात्र के लिए भी प्रमाद का सेवन करना हानिकारक है। जिन पुण्यवान जीवों को मनुष्यत्व, आर्यत्व एवं सम्पूर्ण अंगों सहित शरीर आदि मिल गए हैं तो कदापि प्रमाद का सेवन नहीं करना चाहिए ।
यहां पर धर्म साध्य है और उक्त सामग्री – सम्पूर्णेन्द्रियता साधन है, इसलिए जब तक यह शरीर नीरोग है और पांचों इन्द्रियां पूर्ण एवं कार्य-क्षम हैं, तब तक विचारशील जनों को धर्म के आचरण में सर्वथा अप्रमत्त रहना चाहिए।
अब सम्पूर्णेन्द्रियता के प्राप्त होने पर भी धर्म- श्रुति की दुर्लभता के विषय में कहते हैंअहीणपंचेंदियत्तं पि से लहे, उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा ।
कुतित्थिनिसेवए जणे, समयं गोयम ! मा पमाय ॥ १८ ॥ अहीनपंचेन्द्रियत्वमपि स लभेत्, उत्तमधर्मश्रुतिर्हि दुर्लभा ।
कुतीर्थिनिषेवको जनो, समयं गौतम! मा प्रमादीः || १८ |
पदार्थान्वयः– अहीणपंचेंदियत्तं पि- सम्पूर्ण पंचेन्द्रियपन भी, से– वह, लहे - प्राप्त कर ले, उत्तम — उत्तम, धम्मसुई— धर्म की श्रुति, हु – निश्चय ही, दुल्लहा – दुर्लभ है, कुतित्थि — कुतीर्थ के, निसेवए — सेवन करने वाले, जणे - जन बहुत हैं, समयं - समय मात्र भी, गोयम — हे गौतम! मा पमायए — प्रमाद मत करो ।
मूलार्थ- - यह जीव यदि सम्पूर्ण पञ्चेन्द्रियत्व को प्राप्त कर भी ले तो भी उत्तम धर्म की श्रुति अत्यन्त दुर्लभ है, क्योंकि कुतीर्थ का सेवन करने वाले व्यक्ति बहुत हैं, अतः हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो ।
टीका—कदाचित् पुण्यवशात् शरीर के अवयवों की पूर्णता भी प्राप्त हो जाए तो भी उत्तम धर्म के श्रवण का प्राप्त होना और भी कठिन है, क्योंकि कुतीर्थ का सेवन करने वाले मनुष्य संसार में अधिक उपलब्ध होते हैं ।
'जो नास्तिक मतावलम्बी है, अर्थात् जो आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता है, अथवा विषय-वासना के पोषण मात्र का उपदेष्टा है तथा कुदेव, कुगुरु और अधर्म के आराधन में तल्लीन है उसे कुतीर्थी कहते हैं। अथवा आगम ग्रन्थों में वर्णन किए गए ३६३ पाषंडमत कुतीर्थ कहे जाते हैं। उन मतों के अनुयायी पुरुष संसार में अधिक देखे जाते हैं ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 361 / दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं