SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एवं भव-संसारे, संसरति शुभाशुभैः कर्मभिः । • जीवः प्रमादबहुलः समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥१५॥ पदार्थान्वयः—एवं इस प्रकार, भव-संसारे—जन्म-मरण रूप संसार में, संसरइ–परिभ्रमण करता है, सुहासुहेहिं—शुभाशुभ, कम्मेहिं—कर्मों से, जीवो—जीव, पमायबहुलो बहुत प्रमाद वाला, समयं समय मात्र भी, गोयम हे गौतम! मा पमायए-प्रमाद मत करो। ___मूलार्थ+इस प्रकार यह प्रमादी जीव अपने किए हुए शुभाशुभ कर्मों के द्वारा पृथ्वी आदि की कायस्थिति में, अथवा जन्म-मरण रूप संसार में परिभ्रमण करता रहता है, इसलिए हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो। टीका—गौतम को लक्ष्य बनाकर भगवान कहते हैं कि प्रमादवश हुआ यह जीव अपने शुभाशुभ कर्मों के द्वारा पृथ्वी आदि कायस्थितियों में वा जन्म-मरण रूप संसार-चक्र में परिभ्रमण करता है। प्रमाद कर्मबन्ध का कारण है और कर्मबन्ध के द्वारा ही यह जीव नानाविध-योनियों में भ्रमण करता है, अतः प्रमाद का सर्वथा त्याग करना चाहिए। ___ यद्यपि आगमों में मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा इन पांचों का ही प्रमाद के नाम से वर्णन प्राप्त होता है और बताया गया है कि इन्हीं के द्वारा यह जीव नानाविध कर्मों का बन्ध करता है, तथापि प्रस्तुत प्रकरण में प्रमाद शब्द से धर्म-कार्यों के अनुष्ठान में उपेक्षा एवं विमुखता ही अभिप्रेत है, अर्थात् सांसारिक कार्यों में अधिकाधिक प्रवृत्त होना ही यहां पर प्रमाद माना गया है। .:ऊपर बताया गया है कि आत्मा के संसार में अर्थात् जन्म-मरण के नानाविध चक्रों में परिभ्रमण का हेतु उसके शुभाशुभ कर्म हैं, इन्हीं के प्रभाव से यह जीव देव, मनुष्यादि गतियों में चक्कर लगाता है और कर्मबन्ध का कारण इसका प्रमाद है। प्रमाद की बहुलता से ही यह जीव अनेक प्रकार के ऊंच-नीच कर्मों का बन्ध करता है तथा मनुष्य गति की प्राप्ति में प्रतिबन्ध करने वाले कर्मों का उपार्जन करता है। तात्पर्य यह है कि शास्त्रकारों ने संसार के परिभ्रमण का हेतु प्रमाद को ही माना है, अतः प्रमाद का सर्वथा परित्याग करना चाहिए। पूर्व की गाथाओं में मनुष्य-जन्म की दुर्लभता का वर्णन किया गया है। अब मनुष्य-जन्म के प्राप्त होने पर भी उसमें उत्तरोत्तर प्रधान गुणों की दुर्लभता का प्रतिपादन निम्नलिखित गाथा के द्वारा किया जा रहा है लभ्रूण वि माणुसत्तणं, आयरियत्तं पुणरावि दुल्लहं । बहवे दसुया मिलक्खुया, समयं गोयम! मा पमायए ॥ १६ ॥ . लब्ध्वाऽपि मानुषत्वं, आर्यत्वं पुनरपि दुर्लभम् । बहवो दस्यवो म्लेच्छाः, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥ १६॥ पदार्थान्वयः—लभ्रूण वि—मिलने पर भी, माणुसत्तणं मनुष्य-जन्म के, पुणरावि—फिर भी, | श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 359 / दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy