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सात अथवा आठ बार ही हो सकता है, इससे आगे उसको तिर्यंच पंचेन्द्रियत्व का परित्याग करना ही पड़ता है। यद्यपि उक्त गाथा में पंचेन्द्रिय केवल शब्द का उल्लेख है, तिर्यचपंचेन्द्रिय का नहीं, तथापि प्रकरण से यहां पर तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय का ग्रहण ही अभीष्ट है, क्योंकि यहां पर मनुष्य-भव की दुर्लभता का प्रकरण चल रहा है। उसमें पांच स्थावर और तीन विकलेन्द्रिय जीवों का स्वरूप ऊपर कहा जा चुका है तथा देव और नारकी का वर्णन आगे आने वाला है, अतः पंचेन्द्रियों में शेष तिर्यंच ही रह जाते हैं, सो उन्हीं का वर्णन यहां पर अभिप्रेत है।
इससे सिद्ध हुआ कि यदि यह जीव मरकर निरन्तर तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय भव में उत्पन्न होता रहे तो अधिक से अधिक सात अथवा आठ बार हो सकता है। मनुष्य-जन्म अत्यंत दुर्लभ है, इसको प्राप्त करके धर्म-कार्यों में किसी प्रकार से भी प्रमाद नहीं करना चाहिए, यही इस गाथा का भावार्थ है।
अब फिर प्रस्तुत विषय का ही वर्णन करते हुए देव और नारकी की काय और भवस्थिति का उल्लेख करते हैं
देवे नेरइए य अइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे । इक्केक्कभवगहणे, समयं गोयम! मा पमायए ॥१४॥
देवान्नैरयिकांश्चातिगतः उत्कर्ष जीवस्तु संवसेत् |
एकैक-भव-ग्रहणं, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥ १४ ॥ पदार्थान्वयः देवे देव, नेरइए–नारकियों में, य अइगओ और गया हुआ, जीवो—जीव, उक्कोसं—उत्कृष्टता से यदि, संवसे—रहे, उ—तो, इक्केक्कं—एक-एक, भवगहणे-भव (जन्म) करता है, समयं—समयमात्र भी, गोयम हे गौतम! मा पमायए—प्रमाद मत करो। ___मूलार्थ देव और नरकगति में गया हुआ जीव उत्कृष्टता से यदि वहां पर रहे तो एक ही भव अर्थात् जन्म धारण करता है, अतः हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो।
टीका—यदि यह आत्मा देव बन गया, अथवा नरक गति में चला गया तो अधिक से अधिक एक ही जन्म धारण कर सकता है, क्योंकि देवता मरकर देवता नहीं बनता और नारकी जीव मरकर नरक में नहीं जाता है, अतः जीव वहां से निकलकर मनुष्य-योनि में आता है या पशुयोनि को प्राप्त होता है। देवों और नारकीयों की आयु का प्रमाण अधिक से अधिक ३३ सागरोपम का है, अर्थात् इतने काल तक जीव उस भव में रह सकता है। इसलिए भगवान् महावीर कहते हैं कि विचारशील व्यक्ति को कर्म के क्षय करने में क्षणमात्र के लिए भी प्रमाद का सेवन नहीं करना चाहिए। अब उक्त विषय का उपसंहार करते हैं
एवं भव-संसारे, संसरइ सुहासुहेहिं कम्मेहिं । जीवो पमायबहुलो, समयं गोयम! मा पमायए ॥ १५॥ .
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श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 358 ।
दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं .