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चउरिंदियकायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे । कालं संखिज्जसन्नियं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ १२ ॥ चतुरिन्द्रियकायमतिगतः उत्कर्षं जीवस्तु संवसेत् ।
कालं संख्येयसंज्ञितं, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ १२ ॥
पदार्थान्वयः– चउरिंदियकायं—- चतुरिन्द्रियकाय में, अइगओ - अतिशय करके गया हुआ, जीवो - जीव, उक्कोसं —- उत्कृष्टता से, संखिज्जसन्नियं— संख्येयसंज्ञक, कालं कालपर्यन्त, उ—– तो, संवसे—–— निवास करता है, समयं – समय मात्र भी, गोयम — हे गौतम! मा पमायए - प्रमाद मत करो ।
मूलार्थ - चतुरिन्द्रिय-काय में प्राप्त हुआ जीव उत्कृष्टता से वहां पर संख्यात् सहस्र वर्षों तक निवास करता है, अतः हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो ।
टीका- - इस गाथा का तात्पर्य यह है कि कर्म - गति से चतुरिन्द्रिय योनि को प्राप्त हुआ यह जीव संख्यात (संख्या वाले) सहस्त्रों वर्षों तक इसी में जन्म-मरण को धारण करता रहता है, इसलिए इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को प्राप्त करके धर्म- कृत्यों के अनुष्ठान में लेशमात्र भी प्रमाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि यदि यह जीव इन उक्त योनियों में चला गया तो फिर वहां से इसका निकलना अत्यन्त कठिन जाता है। स्पर्श, जिह्वा, घ्राण और चक्षु इन चार इन्द्रियों वाले जीव चतुरिन्द्रिय कहलाते हैं । जैसे मक्खी, मच्छर इत्यादि जीव ।
अब पञ्चेन्द्रिय जीवों के विषय में कहते हैं—
पंचिंदियकायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे । सत्तट्ठभवग्गहणे, समयं गोयम! मा पमायए ॥ १३॥ पंचेन्द्रियकायमतिगतः, उत्कर्षं जीवस्तु संवसेत् । सप्ताष्टभवग्रहणानि, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ १३ ॥
पदार्थान्वयः—–पंचिंदियकायं— पञ्चेन्द्रियकाय में, अइगओ - प्राप्त हुआ, जीवो - जीव, उक्कोसं— उत्कृष्टता से, संवसे रहे, उ-तो, सत्तट्ठभव- सात आठ भव, ग्गहणे —– ग्रहण करता है, समयं — समय मात्र भी, गोयम — हे गौतम, मा पमायए – प्रमाद मत करो ।
मूलार्थ – पञ्चेन्द्रियकाय में गया हुआ जीव यदि उत्कृष्टता से वहां रहे तो सात-आठ भवों तक वहां रहता है, अतः हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो ।
टीका – भगवान् उपदेश करते हैं कि यह आत्मा कर्म-वशात् यदि तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय-भव को प्राप्त हो जाए तो वहां पर अधिक से अधिक सात-आठ भव ही ग्रहण कर सकता है, अर्थात् सात भव तो तिर्यंच पंचेन्द्रिय के संख्यात आयु वाले कर लेता है और आठवां भव असंख्यात आयु वाले युगलियों का कर सकता है। तात्पर्य यह है कि पंचेन्द्रिय जीव मरकर पंचेन्द्रिय ही होता रहे तो वह
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 357 /
दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं