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________________ टीका—दो इन्द्रियों वाले जीवों में यदि जीव जन्म-मरण करने लग जाए तो उत्कर्षता से संख्यात' वर्षसहस्र काल पर्यन्त वह उसी काय में जन्म-मरण करता रहता है। जिन जीवों के स्पर्श और जिह्वा यह दो इन्द्रियां होती हैं वे द्वीन्द्रिय जीव कहलाते हैं। सीप, शंख, गंडोआ आदि जीव द्वीन्द्रिय में परिगणित हैं। इसलिए विचारशील मनुष्य को समय मात्र का भी प्रमाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि हाथ से निकला हुआ समय फिर मिलना कठिन है। जैसे वृद्ध पुरुष को उसी जन्म में फिर से युवा अवस्था का प्राप्त होना कठिन है, उसी प्रकार इस जीव को पुण्य-संयोग से प्राप्त हुआ यह मनुष्य-जन्म फिर से मिलना नितान्त कठिन है। अतः इस मनुष्य-जन्म को प्राप्त करके धर्मानुष्ठान में कभी प्रमाद न करना चाहिए। अब त्रीन्द्रियकाय जीवों के विषय में कहते हैं तेइंदियकायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे । कालं संखिज्जसन्नियं, समयं गोयम! मा पमायए ॥ ११ ॥ त्रीन्द्रियकायमतिगतः, उत्कर्षं जीवस्तु संवसेत् । . कालं संख्येयसंज्ञितं, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥ ११ ॥ पदार्थान्वयः–तेइंदियकायं–तीन इन्द्रियों वाले काय में, अइगओ—प्राप्त हुआ, जीवो जीव, उक्कोसं—उत्कृष्टता से, संखिज्जसन्नियं—संख्येयसंज्ञक, कालं—काल तक, उ-तो, संवसे—रहता है, समयं—समय मात्र भी, गोयम हे गौतम! मा पमायए—प्रमाद मत करो। मूलार्थ त्रीन्द्रिय काय में गया हुआ जीव उसमें उत्कृष्टता से रहे तो संख्येय-संज्ञक काल तक रह सकता है, अतः हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो। . . टीका भगवान् कहते हैं कि हे गौतम! यदि यह जीव त्रीन्द्रियकाय में चला जाए तो वहां पर भी यह संख्येय-संज्ञक काल-पर्यन्त जन्म-मरण धारण करता रहता है, अर्थात् संख्यात सहस्र वर्षों तक वहां पर यह जन्म-मरण करता है। इसका निवास भी वहां पर दुख-पूर्ण होता है, इसलिए विचारशील पुरुषों को धर्म-कार्यों के सम्पादन में समय मात्र का भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। यहां पर इतना और भी स्मरण रखना चाहिए कि उक्त सूत्र की दीपिका टीका में 'अइगओ' का संस्कृत प्रतिरूप ‘अधिगतः' बताया गया है और सर्वार्थसिद्धि नाम की व्याख्या में 'अतिगतः' रूप निर्दिष्ट किया गया है। परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में ये दोनों ही प्रतिरूप ठीक हैं। इनमें 'अधिगतः' का अर्थ भव-प्राप्त है और 'अतिगतः' का अर्थ ऊपर आ चुका है। कीड़ी आदि जीव तीन इन्द्रियों वाले होते हैं। अब चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में कहते हैं १. 'संख्यातवर्षसहस्रात्मकं' इति वृत्तिः । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 356 | दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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