________________
ने सबसे अधिक श्रेय प्राप्त किया है। परन्तु भगवान् ने तो प्रथम ही से इसमें जीवात्मा का होना बता दिया है। अपि च इसका बढ़ना-घटना और म्लान होना प्रत्यक्ष रूप से इसमें जीव के अस्तित्व को प्रमाणित कर रहा है, अतः कर्मवश वनस्पतिकाय को प्राप्त हुआ जीव इसमें अनन्त काल तक निवास कर सकता है और वहां से इसका निकलना बहुत ही कठिन हो जाता है। प्रज्ञापना सूत्र के अठारहवें पद में लिखा है___ 'सुहुमवणस्सइक्काइए, सुहुमनिगोएवि, जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं असंखेज्जकालंअसंखेज्जाओ उस्सप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ-असंखेज्जा लोगा। बादर वणस्सइक्काइए बादर पुच्छा, गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं असंखेज्जकालं जाव खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जइ भागं। पत्तेय-सरीर बादर-वणस्सइक्काइयाणं पुच्छा, गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सत्तरिकोडाकोडीओ। णिगोदेणं भंते! णिगोदे जहण्णेणं अन्तोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंताओ ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ—अड्डाइज्जा पोग्गलपरियट्टा। बादरनिगोदेणं भंते! बादर, पुच्छा—गोयमा! जहण्णेणं अन्तोमुहुत्तं उक्कोसेणं सत्तरि कोडाकोडीओ'।
इसका भावार्थ केवल इतना ही है कि सूक्ष्म और बादर वनस्पतिकाय में असंख्यातकाल पर्यन्त यह जीव रह सकता है और निगोद में अनन्त कालपर्यन्त रहता है तथा बादर निगोद में सत्तर कोटा-कोटि सायरोपमकाल पर्यन्त रहता है। सो यदि यह जीव निगोद में चला जाए तो उत्कृष्ट अनन्तकाल पर्यन्त उसे वहां ही रहना होगा, किन्तु वहां से उसका निकलना बहुत ही कठिन है, अथवा अत्यन्त कष्ट साध्य है। इसीलिए मूलगाथा में 'दुरंत'' यह विशेषण दिया गया है। अब विकलेन्द्रिय जीवों के विषय में कहते हैं
बेइंदियकायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे । कालं संखिज्जसन्नियं, समयं गोयम! मा पमायए ॥१०॥
द्वीन्द्रियकायमतिगतः, उत्कर्षं जीवस्तु संवसेत् ।
कालं संख्येयसंज्ञितं, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥ १० ॥ पदार्थान्वयः—बेइंदियकायं—द्वीन्द्रियकाय में, अइगओ—गया हुआ, जीवो—जीव, उक्कोसं— उत्कर्ष से, संवसे-रहे, उ-तो, संखिज्ज–संख्येय, सन्नियं—संज्ञक, कालं—काल तक रहता है अतः, समय-समय मात्र भी, गोयम हे गौतम! मा पमायए—प्रमाद मत करो।
मूलार्थ द्वीन्द्रियकाय में गया हुआ जीव उत्कृष्टता से रहे तो संख्यात संज्ञा वाले काल-प्रमाण तक रहता है, अतः हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो।
१.
कथं भूतं अनन्तं काल? दुरन्तम्-दुष्ट: अन्तो यस्य स दुरन्तस्तम्। ते हि वनस्पतिकायमध्यगता जीवास्तत्स्थानादुद्धृता अपि प्रायो विशिष्टं नरादिभवं न लभंते, तस्मात् दुरन्तमिति विशेषणम् । (इति दीपिका टीकायाम्।)
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 355 /
दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं