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तात्पर्य यह है कि वायुकाय में जो जीव जन्म-मरण के चक्र को प्राप्त हो चुके हैं, उनका वहां से निकलना बहुत ही कठिन हो जाता है, अतएव बुद्धिमान् पुरुष धर्माचरण में कभी प्रमाद न करें।
यद्यपि पर-मत* वालों ने रूप, रस, गन्ध से रहित और स्पर्श वाला वायु को स्वीकार किया है, परन्तु उनका यह कथन युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि जो भी स्पर्श वाला द्रव्य होता है, वह रूप, रस और गन्धवाला ही होता है, इसलिए वायु स्पर्श वाला होने के अतिरिक्त रूप, रस, गन्ध और कर्म - क्रिया- संयुक्त भी हैं। इस में अन्तर सिर्फ इतना ही है कि वायु-काय का रूप इन धर्म चक्षुओं का विषय नहीं है। आज कल के वैज्ञानिकों ने तो वायु-मापक यन्त्र के द्वारा इसका वजन भी सिद्ध कर दिया है। तब जिस वस्तु में गुरुत्व की सिद्धि हो फिर उसमें रूप, रस, गन्ध का न मानना किसी प्रकार से भी युक्ति युक्त नहीं कहा जा सकता। इसलिए वायु का रूप यद्यपि चक्षुः प्रत्यक्ष नहीं, तथापि आगम और युक्ति से उसकी रूप-सिद्धि अवश्य होना है, अन्यथा आकाश की भांति यह भी अ सिद्ध होगा ।
अब क्रम प्राप्त वनस्पति-काय की स्थिति का वर्णन करते हैं
वणस्सइकायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे । कालमणंतं दुरंतं, समयं गोयम! मा पमायए ॥ ६ ॥ वनस्पतिकायमतिगतः, उत्कर्षं जीवस्तु संवसेत् । कालमनन्तं दुरन्तं, समयं गौतम! मा प्रमादीः || ६ | पदार्थान्वयः–—–—वणस्सइकायं – वनस्पति काय में, अइगओ- - प्राप्त हुआ, जीवो - जीव, उ—– तो, उक्कोसं—उत्कर्षता से, अनंतं— अनन्त, दुरंतं - दुख से जिसका अन्त हो सके, उतना, कालं काल - पर्यन्त, संवसे— रहता है, समयं -२ - समय मात्र भी, गोयम हे गौतम! मा पमायए — प्रमाद मत करो।
मूलार्थ — वनस्पति-काय में जन्म-मरण को प्राप्त हुआ जीव उत्कृष्टता से दुरन्त — दुखपूर्वक जिसका अन्त हो सके — उसमें अनंत काल पर्यन्त रहता है, इसलिए हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो ।
टीका - जब यह आत्मा वनस्पतिकाय में चला गया और उसी में जन्म-मरण को धारण करने लग गया तो उत्कृष्टता से वह अनन्त काल - पर्यन्त उसी में रहता है, इसलिए विवेकशील व्यक्ति को कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। वनस्पति में तो जीव का अस्तित्व युक्ति और प्रमाण दोनों से सिद्ध है । आजकल के वैज्ञानिकों ने तो वृक्षों में जीव के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए अनेक प्रकार
सूक्ष्मदर्शक यन्त्रों का आविष्कार किया है जिनसे मनुष्य आदि अन्य जीवों की भांति वृक्षों में भी हर्ष-शोक का अनुभव होता पाया गया है। इस विषय में भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉक्टर व ★ न्याय और वैशेषिक मत के अनुयायी वायु को रूप-रहित और स्पर्शगुण वाला मानते हैं, 'रूपरहितः स्पर्शवान् वायुः ' तर्कसंग्रहः श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 354 / दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं