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मूलार्थ तेजस्काय में जन्म-मरण को प्राप्त हुआ जीव उत्कृष्टता से वहां रहे तो असंख्यात काल तक रहता है, अतः हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो।
टीका यदि कोई जीव अशुभ कर्मों के प्रभाव से अग्नि-काय में चला जाए और उसी काय में जन्म-मरण करने लग जाए तो उत्कृष्टता से असंख्यात काल तक उसी में जन्म-मरण करता रहता है, अतः हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो।
तात्पर्य यह है कि यह असंख्यातकाल भी असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों के तुल्य है तथा असंख्यात काल-चक्रों के समयों के प्रमाण में है। अतः धर्म-कार्यों में विलम्ब न करना चाहिए एवं तेजस्काय में दाहकत्व-शक्ति गुण होने से जीवत्व-जीवपन भी प्रमाणसिद्ध है। यदि उसमें जीवत्व न होता तो उसमें दाहकता भी न होती और दाहकत्वगुण से ही तेजस्कायरूपता की स्थिति है यह तेजस्काय असंख्यात जीवों का पिण्डरूप अर्थात् समूहरूप होता है । सूक्ष्म और बादर तेजस्काय की जो असंख्यात-काल की स्थिति वर्णन की गई है उसमें बादर तेजस्काय तो केवल अढ़ाई द्वीप प्रमाण में ही होता है और सूक्ष्म तेजस्काय सारे लोक में व्याप्त हो रहा है।
इस गाथा में 'सुप्' का व्यत्यय प्राकृत के नियम से हो रहा है। 'उक्कोसं'–उत्कर्षतः—पद तस् प्रत्ययान्त है। 'अति' अव्यय अतिशय अर्थ का बोधक है जिसका भाव है—उसी काय में जन्म-मरण की परम्परा। 'तु' शब्द पादपूर्ति के लिए है। एवं 'समय' शब्द के साथ ही 'अपि' शब्द का भी अध्याहार कर लेना चाहिए। सूत्र में 'अपि' अर्थ का बोधक 'पि' लुप्त है। .. तेजस्काय का वर्णन करने के अनन्तर अब क्रम-प्राप्त वायु-काय का वर्णन करते हैं
वाउक्कायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे । कालं संखाईयं, समयं गोयम! मा पमायए || ८ ||
वायुकायमतिगतः उत्कर्षं जीवस्तु संवसेत् ।
. . कालं संख्यातीतं, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥ ८॥ पदार्थान्वयः-वाउक्कायं वायुकाय में, अइगओ—जन्म-मरण को प्राप्त हुआ, जीवो—जीव, उ-तो, उक्कोसं उत्कृष्टता से, संखाईयं—संख्यातीत, कालं—काल तक, संवसे—रहता है, समय–समयमात्र भी, गोयम हे गौतम! या पमायए–प्रमाद मत करो।।
मूलार्थ वायुकाय में जन्म-मरण को प्राप्त हुआ जीव उत्कृष्टता से रहे तो असंख्यात काल तक रह सकता है, अतः हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो।
टीका—भगवान् श्री महावीर स्वामी कहते हैं कि–'हे गौतम! यदि यह आत्मा वायुकाय में ही जन्म-मरण धारण करने लग जाए तो उत्कृष्टता से असंख्यात-काल पर्यन्त उसी काय में जन्म-मरण करता रहता है, अतः धर्म-कार्य के अनुष्ठान में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 353 / दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं