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________________ इसलिए पूर्व जन्मों की अर्जित की हुई कर्म-रज को तू इस जीवन में अपने आत्मा से पृथक् कर दे और इस काम में समय मात्र का भी प्रमाद न कर, यही इसके दूर करने का उपाय है। यद्यपि गौतम स्वामी सोपक्रम आयु वाले प्रतीत नहीं होते, तथापि यह उपदेश अन्य साधारण जीव समुदाय को लक्ष्य में रखकर किया गया है। गौतम स्वामी को तो भगवान् ने केवल निमित्त मात्र रखा है। इसलिए संसार के सभी भव्य जीवों के लिए उनका उपदेश है कि इस विघ्नयुक्त स्वल्प जीवन में बुद्धिमान् व्यक्ति को समय मात्र का भी प्रमाद न करना चाहिए। तभी यह आत्मा परम श्रेय को प्राप्त हो सकेगा, अन्यथा नहीं । यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि हम फिर मनुष्य बनकर धर्म का उपार्जन कर लेंगे, इस पर शास्त्रकार अब मनुष्य जन्म की दुर्लभता के विषय में कहते हैं दुल्ल खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सव्वपाणिणं । गाढा य विवाग कम्मुणो, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ ४ ॥ दुर्लभः खलु मानुषो भवः, चिरकालेनापि सर्वप्राणिनाम् | गाढश्च विपाकः कर्मणां समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥ ४ ॥ पदार्थान्वयः – दुल्लहे—–— दुर्लभ है, खलु – विशेष रूप से, माणुसे मनुष्य, भवे— जन्म, चिरकाण - चिरकाल से, वि-भी, सव्व - सब, पाणिणं - प्राणियों को, य - और, गाढा - अति कठिन है, विवाग – विपाक, कम्मुणो— कर्म का अतः, गोयम — हे गौतम! समयं - समय मात्र का भी, मा पमायए — प्रमाद करो । मूलार्थ - निश्चय ही मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है और चिरकाल से प्राणियों का कर्म विपाक प्रगाढ़ है, अतः हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो । टीका – भगवान कहते हैं कि जिन आत्माओं ने सुकृत का उपार्जन नहीं किया उनको मनुष्य जन्म का प्राप्त होना बहुत कठिन है। इसका चिरकाल तक मिलना दुष्कर है। यह कथन एक जीव की अपेक्षा से नहीं, किन्तु सभी जीवों की अपेक्षा से कहा गया है, क्योंकि मनुष्य जन्म की प्राप्ति सभी के लिए दुर्लभ है। कर्मों का विपाक अर्थात् उदय इतना प्रगाढ़ है कि मनुष्य - गति की प्राप्ति में वह विशेष रूप से प्रतिबन्धक हो जाता है, अर्थात् मनुष्य - गति की प्राप्ति में विघ्न करने वाली कर्म-प्रकृतियों का उदय इस प्रकार का होता है कि सहज में उनका दूर करना बहुत ही कठिन हो जाता है । तात्पर्य यह है कि तीव्र कषायों के उदय से कर्म-प्रकृतियों का बन्धन अति निविड़ अर्थात् गहन हो जाता है, अतः सभी जीवों के लिए मनुष्य जन्म का मिलना अत्यन्त कठिन है, परन्तु किसी पुण्य विशेष के उदय से यह मनुष्य जन्म मिल पाया है, इसलिए इसको प्राप्त करके समय मात्र का भी प्रमाद नहीं करना चाहिए । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 350 / दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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