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________________ इस गाथा में मनुष्य की युवावस्था को ओस बिन्दु के समान और शरीर को कुशा के समान बताया गया है। जैसे- कुशा के अग्रभाग पर टिका हुआ ओस का बिन्दु उज्ज्वल मोती की सी शोभा को धारण किए हुए होता है, उसी प्रकार इस शरीर पर जब यौवन का चक्र आता है, तब इसका सौन्दर्य भी अपूर्व ही दिखाई देता है, परन्तु जैसे ओस के बिन्दु की स्थिति बहुत स्वल्प काल की होती है, उसी प्रकार यह यौवन भी सर्वथा अचिरस्थायी ही होता है । जिस प्रकार ओस के बिन्दु का सौन्दर्य उसके पतन के साथ ही विनष्ट हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्य जीवन के साथ ही इस सौन्दर्य का भी अन्त हो जाता है। जब कि कुशाग्र- लग्न जलबिन्दु के समान क्षणमात्र स्थायी यह मनुष्य जीवन है । इसीलिए बुद्धिमान पुरुष को धर्मानुष्ठान में क्षणमात्र के लिए भी प्रमाद का सेवन नहीं करना चाहिए । यही इस गाथा का भावार्थ है । यहां पर इतना स्मरण रखना चाहिए कि भगवान् ने गौतम को लक्ष्य में रखकर यह उपदेश प्राणिमात्र के लिए दिया है, अतः प्रत्येक विचारशील व्यक्ति के लिए यह उपादेय है । अब इसी विषय को दृढ़ करने के लिए फिर कहते हैं— इइ इत्तरियंमि आउए, जीवियए बहुपच्चवायए । विहुणाहि रयं पुरे कडं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ ३ ॥ इतीत्वर आयुषि जीवितके बहुप्रत्यपायके । विधुनीहि रजः पुराकृतं, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ ३ ॥ पदार्थान्वयः - इइ –— इस प्रकार, इत्तरियंमि – थोड़ी, आउए— आयु में तथा जीवियए —— जीवन में, बहु—–बहुत, पच्चवायए — जिसमें विघ्न हैं, रयं — कर्म-रज, पुरेकडं —– पहले संचित की हुई को, विहुणाहि दूर कर, समयं — समय मात्र का भी, गोयम - हे गौतम! मा पमाय – प्रमाद मत करो । मूलार्थ - इस प्रकार इस स्वल्प स्थिति वाले जीवन में जिसमें कि विघ्न भी बहुत हैं, पूर्व काल में संचित की हुई कर्म-रज को दूर करो और इस कार्य में समय मात्र का भी प्रमाद मत करो । टीका - जीवों की आयु दो प्रकार की होती है, एक निरुपक्रम, दूसरी सोपक्रम । जो किसी भी बाहर के निमित्त से न टूटे, किन्तु अपनी नियत मर्यादा को पूर्ण करके ही समाप्त हो वह निरुपक्रम आयु है तथा जो किसी बाह्य निमित्त के मिलने से अपनी नियत मर्यादा को पूर्ण किए बिना बीच में ही टूट जाए उसे व्यवहारनय की अपेक्षा से सोपक्रम आयु कहते हैं । संसार में निरुपक्रम आयु वाले जीव तो बहुत ही स्वल्प हैं, विशेष संख्या तो सोपक्रमी जीवों की ही है । अतः इस सोपक्रम वाले जीवों को लक्ष्य में रखकर भगवान् कहते हैं कि गौतम! आयु बहुत अल्प है और उसमें भी अनेक प्रकार के विघ्न हैं, अर्थात् आयु को बीच में ही तोड़ देने वाले अनेकविध आतंक (भयानक रोग), शस्त्र, जल, अग्नि, विष, भय और शोक आदि अनेक विघ्न विद्यमान हैं। पता नहीं कि किस समय इन उपद्रवों के द्वारा इस जीवन का अन्त हो जाए, श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 349 / दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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