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________________ गिरकर भूमितल पर पड़े हुए पैरों से मसले जा रहे हैं । यही दशा संसार के प्रत्येक पदार्थ की है। संसार की कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है। इस बात का विचार करके मनुष्य को अपने स्वल्प जीवन में कर्त्तव्य-कार्यों में यत्किंचित् भी प्रमाद नहीं करना चाहिए । यही इस गाथा में उपदिष्ट विषय का सार है । जिस प्रकार वृक्ष में लगा हुआ पत्ता कुछ समय के बाद अपनी हरियाली का त्याग करके पीला पड़कर एक दिन वृक्ष से सदा के लिए अलग हो जाता है, उसी प्रकार यह जीव भी अपनी न्यूनाधिक भव-स्थिति अर्थात् आयु-मर्यादा को पूरी करके इस वर्तमान पर्याय, शरीर का सदा के लिए त्याग करने के लिए विवश हो जाता है । जिस प्रकार वृक्ष में लगा हुआ पत्ता वायु के प्रबल झोंकों से एक क्षण भर वृक्ष से पृथक् होकर भूमि पर गिर पड़ता है, उसी तरह इस मनुष्य शरीर का भी किसी प्रबल रोग के आक्रमण से पतन होते देरी नहीं लगती । तात्पर्य यह है कि जीवन बहुत चंचल एवं अस्थायी है। पता नहीं कि यह किस वक्त जवाब दे जाए, अतः विचारशील साधकों को अपने साधु-जनोचित धार्मिक कृत्यों में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। जो प्रमादी जीव हैं वे समय का दुरुपयोग करने से अन्त में बहुत पश्चात्ताप करते हैं, परन्तु समय के अतिक्रमण के बाद का पश्चात्ताप निरर्थक है । इसलिए भगवान् कहते हैं कि हे गौतम! समय-मात्र का भी प्रमाद मत करो । अत्यन्त सूक्ष्मकाल को समय कहते हैं। अब सूत्रकार आयु की अस्थिरता के विषय में कहते हैं कुसग्गे जह ओसबिंदुए, थोवं चिट्ठइ लंबमाणए । एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम! मा पमायए॥ २ ॥ कुशाग्रे यथावश्यायबिन्दुकः, स्तोकं तिष्ठति लम्बमानकः । एवं मनुजानां जीवितं, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥ २ ॥ पदार्थान्वयः – कुसग्गे —–— कुशा अग्रभाग पर, जह—जैसे, ओसबिंदुए — ओस का बिन्दु, थोवं—थोड़े काल तक, चिट्ठइ — ठहरता है, लंबमाणए – सुन्दरता धारण करता हुआ, एवं - इसी प्रकार, मणुयाण जीवियं मनुष्यों का जीवन है, गोयम — हे गौतम! समयं — समय मात्र का भी, मा पमाय — प्रमाद मत करो । मूलार्थ - हे गौतम! जैसे कुशा के अग्रभाग पर पड़ा हुआ ओस का बिन्दु अपनी शोभा को धारण किए हुए थोड़े काल पर्यन्त ठहरता है, इसी प्रकार मनुष्यों का जीवन है, इसीलिए हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो । टीका - भगवान् महावीर स्वामी ने यौवन अवस्था की अनित्यता को बताते हुए गौतम से कहा है कि कुशा के अग्रभाग पर लटककर सुन्दर प्रतीत होता हुआ ओस का बिन्दु जैसे थोड़े ही काल तक ठहरता है, उसी प्रकार मनुष्य का यह जीवन भी स्वल्पकालस्थायी है, इसलिए धर्म-कृत्यों के अनुष्ठान में समय मात्र का भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 348 दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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