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अह दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं
अथ द्रुमपत्रकं दशममध्ययनम्
नवमें अध्ययन में चारित्र-निष्ठा का वर्णन किया गया है, परन्तु चारित्र में दृढ़ता का होना अधिकतया गुरुजनों की शिक्षा पर ही निर्भर है, इसलिए दसवें अध्ययन में गुरुजनों के द्वारा प्राप्त होने वाली श्रेष्ठ शिक्षाओं का वर्णन किया जाता है। यद्यपि यहां पर गुरुजनों के भी परमगुरु वीतराग भगवान् श्री वर्धमान स्वामी ने इन अनन्तरोक्त शिक्षाओं का उपदेश अपने मुख्य शिष्य गौतम स्वामी को दिया है, तथापि उपलक्षणतया यह सभी के लिए उपादेय है, अर्थात् श्री गौतम स्वामी को मुख्य रखकर यह उपदेश सभी के लिए दिया गया है । इस अध्ययन का नाम 'द्रुमपत्रक अध्ययन' है और इसकी यह प्रथम गाथा है
दुमपत्तए पंडुयएं जहा, निवडइ राइगणाण अच्चए । एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमाय ॥ १ ॥ द्रुमपत्रकं पाण्डुरकं यथा, निपतति रात्रिगणानामत्यये । एवं मनुष्याणां जीवितं, समयं गौतम ! मा प्रमादीः || १ ||
पदार्थान्वयः–दुमपत्तए— वृक्ष-पत्र, जहा — जैसे, पंडुयए – पीला, निवड — गिर जाता है, राइगणाण – रात्रियों के समूह, अच्चए - व्यतीत होने पर, एवं - इसी प्रकार, मणुयाण-मनुष्यों का, जीवियं जीवन है, गोयम - हे गौतम!, समयं — समय मात्र भी, मा पमायए – प्रमाद मत कर ।
मूलार्थ - जैसे रात्रि और दिवसों के व्यतीत होने पर वृक्ष का पत्र पीला होकर गिर पड़ता है, इसी प्रकार मनुष्यों का जीवन भी है, इसलिए हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो ।
टीका - इस गाथा में भगवान् गौतम स्वामी को सम्बोधन करके साधु-जनोचित कर्त्तव्य में पूर्णतया सावधान रहने का उपदेश करते हैं। इस परिणमनशील संसार में समय अपना काम बराबर करता रहता है । पदार्थों की परिणति के प्रवाह का चक्र निरन्तर घूम रहा है, समय जाते कुछ पता नहीं लगता। जो व्यक्ति कल बालक था, वह आज युवा दिखाई देता है और जो जवान था वह बूढ़ा हो जाता है। कल जो पत्र वृक्ष के साथ लगे हुए थे और उसकी शोभा को बढ़ा रहे थे, आज वे उससे
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 347 /
दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं