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________________ इस सारे कथन का अभिप्राय यही है कि मनुष्य-जन्म का प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है। यदि यह मिल गया तो इसको सफल करने के लिए अहर्निश धर्म-कृत्यों के आचरण में तत्पर रहना चाहिए और समय मात्र भी प्रमाद में न खोना चाहिए। अब मनुष्य-जन्म क्यों दुर्लभ है, इस प्रश्न का समाधान करने के लिए प्रथम सब जीवों की काय स्थिति का वर्णन करते हैं। पुढविक्कायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे । कालं संखाईयं, समयं गोयम! मा पमायए ॥ ५ ॥ पृथिवीकायमतिगतः, उत्कर्षं जीवस्तु संवसेत् । ___ कालं संख्यातीतं, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥ ५ ॥ पदार्थान्वयः-पुढविक्कायं—पृथ्वीकाय को, अइगओ—बार-बार प्राप्त हुआ, उक्कोसंउत्कृष्टता से, जीवो—जीव, उ-तो, संवसे-रहते हैं, संखाईयं—संख्यातीत, कालं—काल तक, समयं—समय मात्र भी, गोयम हे गौतम! मा पमायए—प्रमाद मत करो। मूलार्थ—पृथ्वीकाय में गया हुआ जीव उत्कृष्ट भाव से संख्यातीत अर्थात् असंख्यातकाल पर्यन्त रहता है, अतः हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो। ___टीका-इस गाथा में पृथ्वी के जीवों की कायस्थिति का वर्णन किया गया है। कल्पना करो कि . कोई जीव मरकर पृथ्वी-काय में चला गया और फिर मरकर उसी पृथ्वी-काय में जन्म-मरण करने लग • जाए अर्थात् पृथ्वी का जीव मरकर पृथ्वी-काय में ही उत्पन्न होता रहे, इस क्रम से उसकी उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात काल पर्यन्त रहती है। तात्पर्य यह है कि यावन्मात्र असंख्यात-असंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के समय हैं, तावत्कालपर्यन्त जीव पृथ्वी-काय के रूप में रह सकता है। मिट्टी की जाति का नाम पृथ्वी काय है। तात्पर्य यह है कि पृथ्वी ही जिस जीव का काय अर्थात् शरीर है, उसको पृथ्वी काय कहते हैं। अतः उत्कृष्ट दशा में यह जीव असंख्यात काल तक पृथ्वी काय में जन्म-मरण कर सकता है। ऐसी अवस्था में गया हुआ जीव संसार के आवागमन के चक्र में फंस जाता है और वहां से उसका निकलना अत्यन्त कठिन हो जाता है। इसलिए मनुष्य-जन्म प्राप्त किए हुए प्राणियों को समय-मात्र का भी धर्म कृत्यों में प्रमाद नहीं करना चाहिए । अब अप्काय अर्थात् जल-काय की स्थिति का वर्णन करते हैं आउक्कायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे । कालं संखाईयं, समयं गोयम! मा पमायए ॥ ६ ॥ अप्कायमतिगतः, उत्कर्षं जीवस्तु संवसेत् । कालं संख्यातीतं, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥ ६ ॥ - अप्कायनात श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 351 / दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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