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________________ पदार्थान्वयः –—– तो —— तदनन्तर, मुणिवरस्स — मुनिवर के, चक्कंकुसलक्खणे- - चक्र और अंकुश के चिह्न वाले, प्राए – दोनों चरणों को, वन्दिऊण – वंदन करके, ललिय— ललित — सुन्दर, चवल—चंचल, कुंडल—कुंडल, तिरीडी — मुकुट वाला, आगासेणुप्पइओ – आकाश में चला गया । मूलार्थ — तदनन्तर चक्र और अंकुश के चिन्हों से युक्त मुनिवर के दोनों चरणों को वन्दन करके, अति चंचल सुन्दर कुंडल और मुकुट को धारण किए हुए इन्द्र आकाश मार्ग से अपने देवलोक को चला गया। टीका - जो महापुरुष होते हैं, उनके चरणों के तले में ध्वज, अंकुश, पद्म और चक्र आदि के अन्यतम चिह्न होते हैं तथा इन उत्तम लक्षणों वाले महापुरुषों की सेवा - भक्ति भी उच्चकोटि के भव्य जीवों को ही प्राप्त होती है । इसीलिए प्रसन्न हुए इन्द्र ने राजर्षि नमि को श्रद्धा-पूर्वक वन्दन-नमस्कार करके आनन्द पूर्वक अपने देवलोक को प्रस्थान किया । इन्द्र की प्रसन्नता के प्रदर्शक उनके अतिरमणीय चंचल स्वर्ण कुंडल हैं। कुण्डल और मुकुट इन्द्र के चिह्न भी हैं । इन्द्र के देवलोक में चले जाने के बाद राजर्षि नमि ने जो कुछ किया, अब इसी विषय में कहते हैं— नमी नमेइ अप्पाणं, सक्खं सक्केण चोइओ । चइऊण गेहं वेदेही, सामण्णे पज्जुवट्टिओ || ६१ ॥ नमिर्नमयत्यात्मानं, साक्षाच्छक्रेण नोदितः I त्यक्त्वा गृहं च वैदेही, श्रामण्ये पर्युपस्थितः ॥ ६१ ॥ पदार्थान्वयः नमी — राजर्षि नमि, अप्पाणं- आत्मा को, नमेइ – नमाता है, सक्खं— साक्षात्, सक्केण — इन्द्र के द्वारा, चोइओ - प्रेरित हुआ, गेहं – घर, च— और, वेदेही — विदेह देश को, चइऊण— छोड़कर, सामण्णे - श्रमण भाव को, पज्जुवट्ठिओ — प्राप्त हो गया । मूलार्थ -- तदनन्तर साक्षात् इन्द्र के द्वारा प्रेरित अर्थात् नमस्कृत होने पर भी राजर्षि नमि अपनी आत्मा को नमाते हुए अर्थात् विनम्र करते हुए घर और विदेह देश के राज्य को छोड़कर संयम में प्रतिष्ठित होते हैं, अर्थात् संयम में दीक्षित होते हैं । टीका - सच्चे महात्मा पुरुष किसी बड़े पुरुष की वन्दन एवं स्तुति से अभिमान में आने की अपेक्षा और विनम्र हो जाते हैं । यही उनके आत्मिक गुणों के उत्तरोत्तर विकास का हेतु है, इसी कारण से देवराज की स्तुति - प्रार्थना से अपनी आत्मा में किसी प्रकार भी अभिमान न लाते हुए राजर्षि नमि ने आत्मा को पहले से अधिक विनम्र कर दिया तथा अपने राज्य - वैभव का परित्याग करके वे संयम - व्रत में दीक्षित हो गए यही सत्पुरुषों के अन्तरंग - विशुद्धि परिणाम का निर्मल आदर्श है। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 345 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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