SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 347
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ टीका—यद्यपि छद्मस्थ व्यक्ति के लिए निश्चय रूप से यह कहना कठिन है कि यह जीव मोक्ष में जाएगा अथवा नहीं जाएगा, परन्तु जीव के परिणामों का विचार करते हुए उसके मोक्ष में जाने या न जाने का अनुमान अवश्य किया जा सकता है । इन्द्र ने भी इसी आशय से राजर्षि नमि के मोक्ष जाने की बात कही है, अर्थात् ऋषि की विशुद्ध उत्कट परिणाम धारा से उनके मोक्ष - गमन का निश्चय करके इन्द्र ने ऐसा कहा है जो कि उचित ही है । 'लोगुत्तमुत्तमं ' इस शब्द में मकार प्राकृत नियम से आया हुआ है एवं भविष्य अर्थ में 'गच्छसि' यह वर्तमान काल का प्रयोग भी 'व्यत्ययश्च' इस प्राकृत नियम के अनुसार हुआ है। 'भन्ते!' का (भदन्त ) – (हे पूज्य ! ) प्रतिरूप है। अब स्तुति के विषय का उपसंहार करते हुए कहते हैं— एवं अभित्थुणन्तो, रायरिसिं उत्तमाए सद्धाए । पयाहिणं करेन्तो, पुणो-पुणो वन्दई सक्को ॥ ५६ ॥ एवमभिष्टुवन्, राजर्षिमुत्तमया श्रद्धया I प्रदक्षिणां कुर्वन् पुनःपुनर्वन्दते शक्रः ॥ ५६ ॥ पदार्थान्वयः–एवं—इस प्रकार, अभित्थुणतो - स्तुति करता हुआ, रायरिसिं - राजर्षि की, उत्तमाए—–उत्तम, सद्धाए—— श्रद्धा से, पयाहिणं — प्रदक्षिणा, करेन्तो— करता हुआ, सक्को - इन्द्र, पुणो- पुणो – बार-बार, वन्दई – वन्दना करता है । मूलार्थ - इस प्रकार उत्तम श्रद्धा से राजर्षि की स्तुति और प्रदक्षिणा करता हुआ इन्द्र उनको बार-बार वन्दना करता है । टीका- गुणों के द्वारा मनुष्य सर्वत्र और सबका पूज्य बन जाता हैं । सद्गुणी पुरुषों का साधारण मनुष्य तो क्या देवता भी आदर करते हैं । वास्तव में होना भी ऐसा ही चाहिए, क्योंकि गुणानुराग मनुष्योचित गुणों में से एक विशिष्ट गुण है । जो व्यक्ति गुणानुरागी नहीं, वह मनुष्यत्व के आदर्श से बहुत दूर है, इसलिए बिना किसी पक्षपात के गुणवानों की प्रशंसा करना, उनका आदर-सत्कार करना, उनकी यथाशक्ति सेवा - भक्ति करना और उनके प्रति निर्मल श्रद्धाभाव को प्रदर्शित करना गुणानुरागी पुरुष का सबसे पहला कर्त्तव्य हैं । इसी भाव से प्रेरित होकर इन्द्र ने राजर्षि नमि को बार-बार वन्दन किया और उनकी स्तुति तथा प्रदक्षिणा द्वारा अपनी असीम श्रद्धा-भक्ति का विशिष्ट परिचय दिया। यही इस गाथा का फलितार्थ है । तो वन्दिऊण पाए, चक्कंकुसलक्खणे मुणि- वरस्स । आगासेणुप्पइओ, ललियचवलकुंडलतिरीडी ॥ ६० ॥ ततो वन्दित्वा पादौ चक्रांकुशलक्षणौ मुनिवरस्य । आकाशेनोत्पतितः, ललितचपलकुण्डलकिरीटी || ६० ॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 344 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy