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जीवन में आना भी अत्यन्त दुर्लभ है। ये स्वार्थ-रहित सच्चे मित्र किसी पुण्यशाली जीव को ही प्राप्त होते हैं। आपको ये सब प्राप्त हैं, इसलिए आप सबसे अधिक पुण्यवान् हैं, अतएव वन्दनीय हैं।
यहां पर इतना स्मरण रहे कि इन्द्र के द्वारा की जाने वाली राजर्षि नमि के उक्त आर्जवादि सद्गुणों की प्रशंसा कुछ विशेष तात्पर्य रखती है, क्योंकि इन्द्र हर प्रकार से परीक्षा करने के बाद ही उनकी श्लाघा में प्रवृत्त हुए हैं, अतएव उनका निर्वचन अधिक विश्वसनीय है।
यह एक स्वाभाविक सी बात है कि प्रतिवादी के प्रश्नों में कठोरता या धृष्टता की मात्रा रहती ही है, जैसे कि इन्द्र के प्रश्नों में भी कुछ दृष्टिगोचर होती है । परन्तु उत्तर दाता ने अपनी भाषा समिति और धैर्य-पुरस्सर आत्म-संयम का ही सर्वत्र परिचय दिया है। इन सब बातों का परिचय उसके उत्तर से भली-भांति मिल सकता है। बस, इसी तत्व को इन्द्र ने राजर्षि नमि के उत्तर के सन्दर्भ में देखा है । उसने उनसे जितने भी प्रश्न किए उन सबका उत्तर देते हुए उन्होंने अपने स्वभाव-सिद्ध क्षमा और निर्लोभता आदि सद्गुणों का विशिष्ट परिचय देने में किसी प्रकार की भी कमी नहीं रखी। उनके इन्हीं गुणों पर मुग्ध हुआ इन्द्र कहता है — कि हे ऋषे ! आपकी सरलता, कोमलता, क्षमायुक्तता और निर्लोभता निस्सन्देह सर्वश्रेष्ठ, सर्वसुन्दर और सर्वोत्तम है, क्योंकि मेरे प्रश्नों का उत्तर देते समय आप में 'अणुमात्र भी विकृति नहीं आई है।
तात्पर्य यह है कि मेरे औद्धत्य - पूर्ण वचनों के उत्तर में भी आपने अपनी सहृदयता, सहनशीलता आदि सद्गुणों की परम्परा का लेशमात्र भी उल्लंघन नहीं किया जो कि सर्वसाधारण के लिए प्रायः अनिवार्य सा है ।
उक्त गाथा में आए हुए 'अहो' और 'साधु' ये दोनों शब्द अव्यय हैं और क्रमशः आश्चर्य तथा सुन्दरता के वाचक हैं ।
अब फल द्वारा स्तुति के विषय में कहते हैं—
इहं सि उत्तमो भन्ते !, पेच्चा होहिसि उत्तमो | लोगुत्तमुत्तमं ठाणं, सिद्धिं गच्छसि नीरओ ॥ ५८ ॥ इहास्युत्तमो भदन्त ! पश्चात् भविष्यस्युत्तमः ।
लोकोत्तमोत्तमं स्थानं सिद्धिं गच्छसि नीरजः ॥ ५८ ॥
पदार्थान्वयः – भन्ते – हे भगवन्!, इहं – इस जन्म में, उत्तमो - (आप) उत्तम, सि– हैं, पेच्चा - परलोक में, उत्तमो - उत्तम, होहिसि — होंगे, लोगुत्तं — लोकोत्तर जो, उत्तमं - उत्तम, ठाणं — स्थान हैं, सिद्धिं — सिद्धि को, नीरओ — कर्म-रज से रहित होकर, गच्छसि — जाओगे ।
मूलार्थ - हे भगवन्! आप इस लोक में उत्तम हैं, परलोक में भी उत्तम होंगे, तथा कर्म-रज से रहित होकर लोक में परम उत्तम जो मोक्ष स्थान है उसको प्राप्त करेंगे ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 343 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं