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परिचय दिया है। यही कारण है कि प्रथम देवलोक का, इन्द्र उनके चरणों में झुकता हुआ उनकी मुक्तकंठ से स्तुति करता है।
कषायों की दुर्जेयता को ध्यान में रखकर उनके विजेता राजर्षि नमि को इन्द्र कहता है कि
'हे ऋषे! आप धन्य हैं, क्योंकि आपने क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों को सर्व प्रकार से जीत लिया है। सर्व प्रकार से अपने वश में कर लिया है। इसलिए आप सर्व-वन्ध और सर्व पूज्य हैं। यह भाव गाथा में अनेक बार आए हुए 'अहो' शब्द से ध्वनित हो रहा है।
इसके अतिरिक्त इन्द्र ने राजर्षि नमि से जितने भी प्रश्न किए हैं, उन सबमें इन्हीं कषायों की भावना ओत-प्रोत है, क्योंकि संसार की छोटी-बड़ी, उत्तम-अधम जितनी भी सकषाय प्रवृत्तियां हैं, उन सबका कारण अथवा मूल स्रोत ये कषाय ही हैं। कषायों के वशवर्ती दुर्बल आत्मा पर संसार की विभूतियों का प्रभाव बहुत जल्दी होता है। अतएव कहीं पर तो वह इनके सबल चंगुल में जरूर फंस जाता है। इन्द्र ने भी इसी धारणा से महर्षि नमि की आत्मा को टटोलने का प्रयलं किया. परन्त इन्द्र का वह प्रयास विफल हुआ। उसे महात्मा नमि की आत्मा में किसी प्रकार की भी कमजोरी नजर न आई। उसने नमि की आत्मा को अग्नि द्वारा परीक्षण किए गए शुद्ध सुवर्ण की भांति सर्वथा निर्मल और देदीप्यमान पाया। इसीलिए इन्द्र की हर प्रकार की परीक्षा / कसौटी पर वे सर्वथा पूरे उतरे। तब इन्द्र ने उनके प्रति अपना जो कर्त्तव्यं था उसका पालन करते हुए उनके चरणों में वन्दन किया। अब निम्नलिखित गाथा में फिर इसी विषय को स्पष्ट करते हैं
अहो! ते अज्जवं साहु, अहो ते साहु मद्दवं । अहो! ते उत्तमा खन्ती, अहो! ते मुत्ति उत्तमा ॥ ५७ ॥
अहो! ते आर्जवं साधु, अहो! ते साधु मार्दवम् ।
अहो! तवोत्तमा शान्तिः, अहो! ते मुक्तिरुत्तमा || ५७ ॥ पदार्थान्वयः–अहो आश्चर्य है, ते—आपकी, अज्जवं सरलता, साहु श्रेष्ठ है, अहो ते-आपका, मद्दवं मृदुभाव—कोमलता, साहु–सुन्दर है, अहो-ते-खन्ती—आपकी क्षमा, उत्तमा–उत्तम है, अहो-ते-आपकी, मुत्ति—निर्लोभता, उत्तमा–उत्तम है।
मूलार्थ हे ऋषे! आपकी सरलता, कोमलता, क्षमा और निर्लोभता सर्व प्रकार से श्रेष्ठ, सुन्दर और उत्तम हैं, यह बड़े आश्चर्य और हर्ष की बात है।
टीका जिस प्रकार क्रोधादि चारों दुर्गुण इस आत्मा के निकटवर्ती बलवान् शत्रु हैं, उसी प्रकार आर्जवादि सद्गुण भी इस आत्मा के अत्यन्त निकटवर्ती हितकारी मित्र हैं। उनके जीवन में आने से यह आत्मा कभी कुमार्ग में प्रवृत्त नहीं होता। उक्त दुर्गुणों के सम्पर्क से उन्मार्ग में प्रवृत्त हुए आत्मा . को सन्मार्ग में लाने वाले भी यही सद्गुण ही हैं, एवं क्रोधादि दुर्गुणों के जघन्य संग से इस आत्मा को मुक्त कराने वाले अर्थात् उक्त दुर्गुणों पर विजय दिलाने वाले भी ये सद्गुण ही हैं। अतएव इनका
__ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 342 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं