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________________ पदार्थान्वयः – कोहेणं क्रोध से, अहे - नीचे - नरक गति में, वयइ — जाता है, माणेणं - मान से, अहमा - अधम, गई—गति प्राप्त होती है, माया - माया से, गइ पडिग्घाओ - अच्छी गति का विनाश हो जाता है, लोहाओ - लोभ से, दुहओ — दोनों लोकों में, भयं - भय होता है। मूलार्थ - क्रोध करने से जीव नरक गति में जाता है, मान से अधोगति प्राप्त होती है, माया से सुगति का विनाश और लोभ से दोनों लोकों में भय होता है । टीका - जहां पर काम-भोगों का सेवन अथवा चिन्तन है वहां पर क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों का न्यूनाधिक रूप में अस्तित्व अवश्य ही रहता है। इनमें क्रोध तो जीव को नीची गति में ले जाता है, मान अर्थात् अहंकार अधम गति में धकेलता है, माया अर्थात् कपट से जीव सद्गति का विनाश करता है और लोभ इस लोक में तथा परलोक में भय को देने वाला है । इसलिए काम-भोगों का सेवन और इनकी प्राप्ति का संकल्प दोनों ही महान् अनिष्ट के देने वाले हैं। किसी भी कार्य में संकल्प से ही मनुष्य की प्रवृत्ति होती है। जब तक किसी विषय का प्रथम चिन्तन न होगा तब तक उसके लिए प्रयत्न नहीं किया जाता, अतः मन से वस्तु का ग्रहण अथवा त्याग ही वास्तविक त्याग या ग्रहण माना जाता है। इससे सिद्ध हुआ कि जिसका मन त्याग में प्रवृत्त नहीं, वह साधक ऊपर से त्यागी होता हुआ भी वास्तव में त्यागी नहीं है । यथा'वत्थगन्धमलंकारं इत्थीओ सयणाणि य । अच्छन्दा जे न भुंजंति, न से चाइत्ति वुच्चइ * ॥' अर्थात् पदार्थों में जिसकी अभिलाषा विद्यमान है, वह उनका उपभोग न करता हुआ भी उनक त्यागी नहीं है, अतः मानसिक त्याग ही सच्चा त्याग है । इसलिए हे ब्राह्मण! मुझे तो ऐहिक और पारलौकिक दोनों ही प्रकार के काम-भोगों की अभिलाषा नहीं है, मेरे लिए इष्ट भोगों का त्याग और अदृष्ट भोगों की चाह आदि का प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता । इस प्रकार अनेकविध यत्न करने पर भी जब राजर्षि नमि ने अपने विचारों का परित्याग नहीं किया, तब धारण किए हुए कृत्रिम ब्राह्मण स्वरूप का त्याग करके अपने वास्तविक स्वरूप में आकर की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए इन्द्र कहते हैं— अवउज्झिऊण माहणरूवं, विउव्विऊण इन्दत्तं ॥ ★ वन्दइ अभित्थुणन्तो, इमाहि महुराहिं वग्गूहिं ॥ ५५ ॥ अपोह्य ब्राह्मणरूपं, विकुवित्वा इन्द्रत्वम् । वन्दतेऽभिष्टुवन्, आभिर्मधुराभिर्वाग्भिः || ५५ || पदार्थान्वयः – अवउज्झिऊण — छोड़कर, माहणरूवं - ब्राह्मण रूप को, विउव्विऊण — उत्तर वस्त्रगन्धमलंकारं, स्त्रियः शयनानि च । अच्छन्दा (परवशाः) ये न भुञ्जते, न ते त्यागिन इत्युच्यते । । (दशवै. अ. २ गा. २) श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 340 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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