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सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा । कामे य पत्थेमाणा, अकामा जन्ति दोग्गइं ॥ ५३ ॥ शल्यं कामा विषं कामाः, कामा आशीविषोपमाः ।
कामांश्च प्रार्थयमानाः, अकामा यान्ति दुर्गतिम् ॥ ५३ ॥ पदार्थान्वयः–सल्लं—शल्यरूप, कामा काम हैं, विसं विषरूप, कामा—काम हैं, कामा—काम, आसीविसोवमा सर्प के समान हैं, च-और, कामे—कामों की, पत्थेमाणा–प्रार्थना करते हुए अर्थात् चाहते हुए, अकामा—काम-रहित, दोग्गइं—दुर्गति को, जन्ति—जाते हैं।
मूलार्थ-वे काम-भोग शल्यरूप हैं तथा सर्प के तुल्य हैं, इन काम-भोगों का सेवन न करने वाले भी इनकी प्रार्थना अर्थात् चाह से दुर्गति में जाते हैं।
टीका राजर्षि नमि कहते हैं कि–'हे इन्द्र! ये काम-भोग शल्य के समान हैं, अर्थात् जिस प्रकार शरीर के किसी भी अंग में प्रविष्ट हुए शल्य अर्थात् बाण के आगे का तीक्ष्ण अंश या कांटा मांस के साथ मिलकर सारे शरीर में तीव्र वेदना उत्पन्न कर देता है, उसी प्रकार काम-भोगासक्त चित्त भी व्यक्ति को रात-दिन शल्य की भांति पीड़ित करता रहता है।
ये काम-भोग विष के तुल्य हैं। तात्पर्य यह है कि जिस तरह मधु-मिश्रित विष खाने में मधुर और परिणाम में अति दारुण दुख देने वाला होता है, उसी तरह ये काम-भोग भी पहले तो बड़े प्रिय लगते हैं और परिणाम में ये विष से भी अधिक भयंकर होते हैं। ये काम-भोग सर्प-विष के समान अत्यन्त भयंकर हैं। जैसे सर्प फण उठाकर नाचता हुआ तो अत्यन्त प्रिय लगता है, परन्तु स्पर्श होते ही-शरीर के किसी अंग को छूते ही प्राणों को हरने वाला हो जाता है, वैसे ही ये काम-भोग भी देखने में अत्यन्त रमणीय प्रतीत होते हैं, परन्तु इनका थोड़ा सा स्पर्श भी आत्मा के लिए महान् अनर्थकारी बन जाता है।
इतना ही नहीं, अपितु जो जीव इन काम-भोगों का केवल स्मरणमात्र या इनके पाने की इच्छा मात्र भी करते हैं, वे भी दुर्गति अर्थात् नरक-गति में जाते हैं, अतः मुमुक्षु पुरुष को इन काम-भोगों का सेवन तो क्या, इनका स्मरण भी नहीं करना चाहिए, इसी में उनकी भलाई है। अतएव मेरे लिए ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के काम-भोग सर्वथा त्याज्य हैं।
तात्पर्य यह है कि मैं न तो इनका सेवन करता हूं और न ही अपने मन में इन्हें भोगते रहने का कभी संकल्प करता हूं। इसलिए काम-भोग सम्बन्धी आपका यह प्रश्न सर्वथा अनुपयुक्त है। तथा
अहे वयइ कोहेणं, माणेणं अहमा गई । माया गइ-पडिग्घाओ, लोहाओ दुहओ भयं ॥ ५४॥
अधो व्रजति क्रोधेन, मानेनाधमा गतिः । मायया (सु) गति-प्रतिघातः, लोभाद् उभयतः भयम् ॥ ५४॥
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 339 | णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं
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