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________________ मूलार्थ हे राजन्! आश्चर्य है कि आप अति अद्भुत प्राप्त हुए भोगों का परित्याग करते हो और असत् अर्थात् अविद्यमान, अप्राप्त काम-भोगों की प्रार्थना करते हो तथा अपने ही संकल्प के द्वारा पीड़ित हो रहे हो। टीका-राजर्षि नमि के धन-धान्यादि विषयक अभिलाषा के त्याग और तप.के अनुष्ठान आदि से सम्बन्ध रखने वाले विचारों को सुनकर इन्द्र ने उनसे जो प्रश्न किया है वह भी बड़ा विलक्षण है। देवेन्द्र कहते हैं कि यह बड़े आश्चर्य की बात है कि आप जैसे बुद्धिमान् राजा अयन-प्राप्त इन अद्भुत काम-भोगों का परित्याग करके अविद्यमान और आयास-साध्य काम-भोगों की अभिलाषा कर रहे हैं तथा मानसिक संकल्पों के द्वारा आत्मा को बाधित कर रहे हैं। उपस्थित का परित्याग करके अनुपस्थित की कल्पना कोई बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती, अतः इष्ट और स्वतः प्राप्त लौकिक काम-भोगों की अवहेलना करके अदृष्ट एवं अप्राप्त मोक्ष और स्वर्गादि के सुखों की अभिलाषा से नाना प्रकार के संकल्प-विकल्पों द्वारा आत्मा को खेदित करना भी आप के लिए उचित नहीं है। प्रथम तो अदृष्ट वस्तु की सत्ता ही प्रमाण-बाधित है, अर्थात् किसी प्रमाण के द्वारा उसकी सिद्धि ही नहीं हो सकती, कदाचित् हो भी जाए तो उसकी प्राप्ति में सन्देह रहता ही है। फिर आप जैसे बुद्धिमान् पुरुष स्वतः-सिद्ध और बिना यल प्राप्त हुए इन काम-भोगों का तो त्याग कर दें और असत् तथा अप्राप्त अदृष्ट काम-भोगों की इच्छा करें. इससे अधिक आश्चर्य की बात क्या हो सकती है ! इसलिए आपको उचित है कि कल्पित एवं संदिग्ध पारलौकिक सुखों की अभिलाषा के व्यामोह में पड़कर इन हस्तगत दिव्य काम-भोगों का परित्याग न करें। यही आपके लिए हित-कर मार्ग है, क्योंकि जो विचारशील पुरुष होते हैं वे कल्पना-प्रसूत अनागत सुखों की आशा से वर्तमान काल में प्राप्त हुए सुखों का तिरस्कार नहीं करते। इसलिए अनेकविध उपदेशों के मिलने पर भी ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने अपने वर्तमान कालीन सुखों का परित्याग नहीं किया, तब योग्य तो यही है कि आप भी इन उपलब्ध सुखों का परित्याग न करें। . एयमढें निसामित्ता हेउ-कारण-चोइओ'। तओ नमी रायरिसी, देविंदं इणमब्बवी ॥ ५२ ॥ . एनमर्थं निशम्य, हेतु-कारण-नोदितः । . ततो नमी राजर्षिः देवेन्द्रमिदमब्रवीत् ॥ ५२ || __ (शब्दार्थ पूर्ववत्) मूलार्थ इन्द्र के इस उक्त कथन को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित होकर राजर्षि नमि देवेन्द्र से इस प्रकार बोले टीका—मूलार्थ से ही प्रस्तुत गाथा का भाव स्पष्ट हो रहा है, अतः विशेष व्याख्या अपेक्षित प्रतीत नहीं होती है। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 338 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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