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________________ भी उसकी तृष्णा शान्त होने की बजाय कुछ और अधिक प्राप्त करने के लिए दौड़ेगी, अर्थात् इतनी कल्पनातीत और अमर्यादित सामग्री से भी तृष्णा की पूर्ति नहीं हो सकती है। इसलिए बुद्धिमान् विचारशील पुरुष को इन धन-धान्यादि पदार्थों के संग्रह का व्यामोह छोड़कर केवल तपोऽनुष्ठान की ओर ही प्रवृत्त होना चाहिए। आत्मा के साथ लिप्त हुआ तृष्णारूप मल तप के बिना दूर नहीं हो सकता। जिस प्रकार सुवर्ण में रहे हुए मल की शुद्धि अग्नि के द्वारा होती है, उसी प्रकार आत्मा की शुद्धि के लिए तपश्चर्या की आवश्यकता है। तृष्णारूप मल से दूषित हुआ आत्मा शांति से बहुत दूर रहता है, उसमें आकुलता अधिक रहती है। अतः आत्मा की शांति और निराकुलता के लिए सब से प्रथम तृष्णा को उससे पृथक् करना चाहिए। परन्तु तृष्णा को क्षय करने के लिए सन्तोष (द्वादश विध बाह्याभ्यन्तर तप) ही समर्थ है। इसलिए मुझे सांसारिक पदार्थों के द्वारा कोशपूर्ति की कुत्सित अभिलाषा का त्याग करके तपोऽनुष्ठान में ही निरन्तर प्रवृत्त होना चाहिए। उक्त गाथा में 'पसुभि' इस प्रकार का तृतीया विभक्ति का प्रयोग आर्ष प्रयोग समझना चाहिए, अन्यथा प्राकृत व्याकरण के अनुसार भिस् विभक्ति के स्थान में तो 'हिं या हि' का आदेश होता है। तथा 'वज्जा' के विदित्वा, विद्वान् और विद्वांसः, ये तीनों प्रतिरूप होते हैं, इसलिए अर्थ-ग्रहण में तीनों ही स्वीकृत हैं। एयमढं निसामित्ता, हेउ-कारण-चोइओ । तओ नमिं रायरिसिं, देविन्दो इणमब्बवी ॥ ५० ॥ ____एनमर्थं निशम्य, हेतु-कारण-नोदितः । ततो नमि राजर्षि, देवेन्द्र इदमब्रवीत् ॥ ५० ॥ . (शब्दार्थ पूर्ववत्) मूलार्थ इसके अनन्तर हेतु और कारण से प्रेरित होकर महाराज इन्द्र ने राजर्षि नमि से फिर कहा____टीका—भावार्थ स्पष्ट है, अतः व्याख्या नहीं की जा रही। अच्छेरगमब्भुदए, भोए चयसि पत्थिवा ! । असन्ते कामे पत्थेसि, संकप्पेण विहम्मसि || ५१ ॥ आश्चर्यमद्भुतान्, भोगान् त्यजसि पार्थिव! | असतः कामान्प्रार्थयसे, संकल्पेन विहन्यसे || ५१ ॥ पदार्थान्वयः-अच्छेरगं—आश्चर्य है, अब्भुदए-अद्भुत, भोए—भोगों को, पत्थिवा हे राजन्!, चयसि—त्यागते हो, असन्ते-असत्, कामे—कामों की, पत्थेसि—प्रार्थना करते हो, संकप्पेण-संकल्प से, विहम्मसि—पीड़ित किए जाते हो। . श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 337 | णवमं नपिवज्जाणामज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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