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धन संग्रह से भी तृष्णा की शान्ति होनी अशक्य है, क्योंकि लोभी पुरुष के आगे यदि सोने-चान्दी के पर्वतों के समान असंख्य ढेर भी लगा दिए जाएं तो भी उसकी तृप्ति नहीं होती, वह उससे भी अधिक के लिए ललचाता है। यह तृष्णा आकाश की भांति अनन्त है, इसकी धन-धान्यादि से कभी पूर्ति नहीं हो सकती। अतएव नीतिकारों का कथन है कि यह तृष्णा, हजारों, लाखों और करोड़ों से तो क्या, साम्राज्य, देवत्व और इन्द्रत्व पद की प्राप्ति पर भी सन्तुष्ट नहीं होती. न. सहस्राद् भवेतुष्टिर्न लक्षान्न च कोटिभिः । न राज्यान्न च देवत्वान्नेन्द्रत्वादपि देहिनाम् ||
जैसे-जैसे धन की वृद्धि होती है, वैसे-वैसे तृष्णा भी बढ़ती जाती है, इसलिए धन से तृष्णा की पूर्ति का होना अत्यन्त अशक्य है।
जब यह सत्य है तब फिर सोने-चांदी आदि से कोश के भरने की इच्छा करना या उसके लिए किसी प्रकार का प्रस्ताव करना किसी तरह भी उचित नहीं कहा जा सकता । वृद्ध सम्प्रदाय के अनुसार यहां पर कैलाश का अर्थ मेरु पर्वत ही है।
अब फिर इसी विषय की पुष्टि के लिए नमि प्रकारान्तर से इन्द्र प्रश्न का उत्तर देने में प्रवृत्त होते हैं—
पुढवी साली जवा चेव, हिरण्णं पसुभिस्सह । पडिपुण्णं नालमेगस्स, इइ विज्जा तवं चरे ॥ ४६ ॥ पृथिवी शालिर्यवाश्चैव, हिरण्यं पशुभिः सह । प्रतिपूर्णं नालमेकस्मै, इति विदित्वा तपश्चरेत् ॥ ४६ ॥
पदार्थान्वयः—–पुढवी—–— पृथिवी, साली — लाल चावल, जवा — यव – जौ, च— अन्य धान्य, एव - ( अवधारण अर्थ में), हिरण्णं - सुवर्ण, पसुभि — पशुओं के, सह—– साथ — समस्त पृथिवी, पडिपुण्णं—परिपूर्ण, अलं—समर्थ, न – नहीं है, एगस्स – एक जीव की इच्छा पूर्ण करने में, इइ – इस प्रकार, विज्जा — जानकर - विद्वान्, तवं – तप का, चरे- आचरण करे ।
मूलार्थ — भूमि, शाली, यव, हिरण्य और पशु आदि पदार्थों से परिपूर्ण यह सारी पृथ्वी भी एक जीव की इच्छा को पूर्ण करने में समर्थ नहीं हो सकती, यह जानकर विद्वान् पुरुष तप का आचरण करें ।
टीका - इस गाथा में भी पूर्वोक्त विषय का ही समर्थन किया गया है। राजर्षि नमि कहते हैं कि संसार के पदार्थों में तृष्णा की पूर्ति करने की सामर्थ्य नहीं है। ये तो तृष्णा को शमन करने के स्थान में उसके संवर्धक ही हैं। जिस प्रकार अग्नि की ज्वाला घृत डालने से शान्त होने की बजाय तीव्र होती है उसी प्रकार संसार के पदार्थों से भी तृष्णा घटने के स्थान पर बढ़ती ही है । अतः यदि किसी लोभी पुरुष को, धन-धान्य, चांदी-सोना और हाथी घोड़े आदि से परिपूर्ण सारा भूमंडल भी दे दिया जाए, तो
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 336 /
णवमं नमिपवज्जाणामज्झणं