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________________ भी चिरकाल तक स्थायी नहीं रह सकता । तात्पर्य यह है कि जैसे शब्दों का अर्थ जानने के लिए विद्वान् को शब्द कोश अर्थात् शब्द राशि के ज्ञान की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार शासन को स्थिर और प्रभावशाली बनाए रखने के लिए राजा को सुव्यवस्थित कोश अर्थात् खजाने की आवश्यकता होती है। इसलिए हे महाराज ! सबसे पहले आप अपने कोश को समृद्ध करें, तदनन्तर ही आपको दीक्षा के लिए प्रस्तुत होना चाहिए । एयमट्ठ निसामित्ता, हेउ-कारण- चोइओ । तओ नमी रायरिसी, देविंदं इणमब्बवी ॥ ४७ ॥ एनमर्थं निशम्य, हेतु-कारण-नोदितः 1 ततो नमी राजर्षिः, देवेन्द्रमिदमब्रवीत् ॥ ४७ ॥ (शब्दार्थ पूर्ववत्) मूलार्थ – इन्द्र के इस धन-संग्रह-सम्बन्धी प्रश्न को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित राजर्षि नमि इन्द्र के प्रति इस प्रकार बोले टीका - शब्दार्थ से ही भाव स्पष्ट हो रहा है, अतः व्याख्या अपेक्षित नहीं है । सुवण्णरुप्पस्स -उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया ॥ ४८ ॥ सुवर्ण-रूप्यस्य च पर्वता भवेयुः स्यात् (कदाचित् ) खलु कैलाशसमा असंख्यकाः । नरस्य लुब्धस्य न तैः किंचित् इच्छा खलु आकाशसमा अनन्तिका ॥ ४८ ॥ पदार्थान्वयः —–— केलास –—–— कैलाश के, समा- समान, असंखया – असंख्यात, सुवण – सोने, उ— और, रुप्पस्स—– चान्दी के, पव्वया - पर्वत, सिया — कदाचित् भवे — होवें, हु — निश्चय ही, लुद्धस्स - लोभी, नरस्स — व्यक्ति को, तेहि — उनसे, न किंचि - किंचित् मात्र भी सन्तोष नहीं हो सकता, हु— निश्चय ही, इच्छा - तृष्णा, आगाससमा - आकाश के समान, अणन्तिया —– अनन्त कही गई है। मूलार्थ — कैलाश अर्थात् सुमेरु पर्वत के समान सोने-चांदी के कदाचित् असंख्य पर्वत भी हों तो भी लोभी पुरुष के आगे वे कुछ नहीं हैं, अर्थात् इनसे भी लोभी पुरुष की इच्छा पूर्ण नहीं हो सकती, क्योंकि यह तृष्णा आकाश के समान अनन्त है, इसकी पूर्ति कभी नहीं हो सकती । टीका- — इन्द्र ने राजर्षि नमि के समक्ष धन आदि से खजाने को समृद्ध करने का प्रस्ताव किया था, उनका उत्तर देते हुए राजर्षि नमि कहते हैं कि सुवर्णादि पदार्थों का संग्रह निष्प्रयोजन है, क्योंकि इसकी आत्म-शान्ति के लाभ में कोई उपयोगिता नही है । इसके विपरीत यह धन-संग्रह कुछ विघ्न अवश्य उपस्थित करता है । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 335 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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