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(शब्दार्थ स्पष्ट है) मूलार्थ इन्द्र के इस कथन को सुनकर राजर्षि नमि ने हेतु और कारण से प्रेरित होकर इन्द्र के प्रति इस प्रकार कहाटीका इस गाथा का अर्थ सर्वथा स्पष्ट है, अतः विशेष विवेचना की आवश्यकता नहीं है।
मासे मासे उ जो बालो, कुसग्गेणं तु भुंजए । न सो सुयक्खायधम्मस्स, कलं अग्घइ सोलसिं || ४४ ॥ . मासे मासे तु यो बालः, कुशाग्रेण तु भुङ्क्ते ।
न स स्वाख्यातधर्मस्य, कलामर्हति षोडशीम् ॥ ४४ ॥ पदार्थान्वयः—मासे-मासे—प्रतिमास, उ—ही, जो—जो, बालो—बाल—अज्ञानी, कुसग्गेणंकुशाग्रमात्र, तु—ही, भुंजए—आहार करता है, सो—वह, सुयक्खाय–सुविख्यात, धम्मस्स-धर्म को, सोलसिं—सोलहवीं, कलं-कला को भी, न अग्घइ—प्राप्त नहीं होता।
___ मूलार्थ—जो बाल अर्थात् अज्ञानी जीव प्रतिमास कुशाग्र-मात्र आहार करता है, वह तीर्थङ्कर देव के कहे हुए इस सर्व-विरति रूप धर्म की सोलहवीं कला को भी प्राप्त नहीं कर सकता, अर्थात् इस प्रकार की विकट तपस्या भी सर्व-विरति धर्म के आगे कुछ मूल्य नहीं रखती है।
टीका—जो विचार-शून्य पुरुष प्रतिमास उपवास तप करता है, अर्थात् एक मास के अनशन के बाद पारणा करता है और वह भी परिमाण में अत्यन्त सूक्ष्म होता है, ऐसा व्रती भी इस प्रकार के अज्ञानजन्य क्लिष्ट तप से सर्वज्ञ-भाषित सर्व-विरतिरूप धर्म के सोलहवें हिस्से जितनी भी योग्यता नहीं प्राप्त कर सकता, अर्थात् उक्त प्रकार का अज्ञान तप तीर्थङ्कर भगवान द्वारा कथन किए गए सर्वविरति धर्म के सोलहवें हिस्से की भी बराबरी नहीं कर सकता।
इससे सिद्ध हुआ कि अज्ञान-मूलक तपश्चर्या का सर्व-विरति धर्म के समक्ष कुछ भी मूल्य नहीं है, सर्वविरति धर्म तो कर्म-निर्जरा के द्वारा मोक्ष का हेतु है और अज्ञान-कष्ट का फल अधिक से अधिक देव-गति की प्राप्ति है। अतः गृहस्थाश्रम में सावध प्रवृत्तियों की अधिकता होने से वह मुमुक्षु पुरुषों के लिए आदरणीय नहीं है और भिक्षु-चर्या संन्यासाश्रम में सावध व्यापार का सर्वथा अभाव होने से वह सबके लिए उपादेय है। इसी अभिप्राय से मैं गृहस्थाश्रम का त्याग करके संन्यासाश्रम में प्रवेश करने के लिए कटिबद्ध हुआ हूं।
★ १: इस गाथा के साथ धम्मपद की इस निम्नलिखित गाथा की तुलना कीजिए।
'मासे मासे कुसग्गेन, बालो भुंजेज भोजनम् । न सो संखत्त-धम्मानं कल अग्घति सोलसीं ॥ (बाल वग्ग. गाथा ११) मासे मासे कुशाग्रेण, बालो भुञ्जति भोजनम् । न स सख्यात-धर्माणां कलामर्हति षोडशीम् ॥
___ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 333 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं
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