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अन्य तीनों आश्रमों के भरण-पोषण का भार इसी घोर आश्रम अर्थात् गृहस्थाश्रम पर है। इस गृहस्थाश्रम को अन्य आश्रमों की अपेक्षा उत्कृष्ट प्रमाणित किया गया है तथा इस गृहस्थाश्रम का यथाविधि पालन करना भी धीर-वीर - गम्भीर और तत्त्वशाली पुरषों का ही काम है, कायरों का नहीं । इसी अभिप्राय को लेकर देवेन्द्र ने राजर्षि नमि से कहा है कि आज जो गृहस्थाश्रम को छोड़कर अन्य आश्रम का अवलम्बन कर रहे हैं, यह ठीक नहीं है, क्योंकि आप क्षत्रिय हैं और यह गृहस्थाश्रम शूर-वीरों के धारण करने योग्यं तथा अन्य आश्रमों से उत्कृष्ट है, इसमें पराक्रमशाली व्यक्ति ही प्रवेश - कर सकते हैं, कायरों का रहना इसमें कठिन है, क्योंकि इसमें रहने वाले व्यक्तियों को शारीरिक परिश्रम सबसे अधिक करना पड़ता है और मांगकर खाने की प्रवृत्ति को निंदनीय माना गया है। इस महिमाशाली गृहस्थाश्रम के भार को कायर पुरुष नहीं उठा सकते। इसके लिए आप जैसे धैर्यशील पुरुषों की ही आवश्यकता होती है ।
नीतिशास्त्र में भी इसी भाव को व्यक्त करते हुए कहा गया है— गार्हस्थ्येन समो धर्मो, न भूतो न भविष्यति । पालयन्ति नराः शूराः, क्लीवाः पाषण्डमाश्रिताः || सुदुर्वहं परिज्ञाय, घोरं गार्हस्थ्यमाश्रमं । मुण्डनग्न- जटावेषाः, कल्पिताः कुक्षिपूर्तये ॥ सर्वतः सुन्दरा भिक्षा, रसा यत्र पृथक्-पृथक् 1 स्यादेकयामिकी सेवा, नृपत्वं साप्तयामकम् ॥
तात्पर्य यह है कि गृहस्थाश्रम के समान घोर - अतिविकट दूसरा कोई आश्रम नहीं है, उसका पालन शूरवीर व्यक्ति ही कर सकते हैं । कायर पुरुष तो उसका त्याग करके केवल भिक्षावृत्ति के द्वारा उदरपूर्ति के लिए अनेक प्रकार के पाखण्डमय वेष बनाकर फिरते हैं, परन्तु आप तो शूरवीर हैं, अतः आप इसी आश्रम में रहकर पौषध आदि व्रत - नियमों का पालन करें, क्योंकि अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वों में पौषध-उपवास आदि के करने से तथा गृहस्थोचित अणुव्रतों का पालन करने से त्याग-प्रधान साधु कर्त्तव्य की भी आंशिक पूर्ति हो जाएगी और गृहस्थाश्रम का भी यथा विधि पालन हो सकेगा।
यद्यपि अनशनादि व्रतों की भांति गृहस्थ धर्म का पालन करना भी अति कठिन है, तो भी आप शूरवीर और प्रज्ञा सम्पन्न हैं, इसलिए गृहस्थाश्रम का त्याग करके संन्यास धारण करने का विचार अभी तो आप सर्वथा त्याग दें ।
एयमट्ठ निसामित्ता, हेउ-कारण- चोइओ ।
तओ नमी रायरिसी, देविन्दं इणमब्बवी ॥ ४३ ॥
एनमर्थं निशम्य हेतु कारण-नोदितः 1 ततो नमी राजर्षिः, देवेन्द्रमिदमब्रवीत् || ४३ ||
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 332 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं