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से उसमें हिंसा-जनक किसी भी व्यापार का प्रवेश नहीं होता है तथा यज्ञ और गोदान आदि जितने भी सकाम-कर्म हैं वे सावध होने से कर्मबन्ध के हेतु हैं और संयम से कर्मों की निर्जरा होती है। अतः बन्ध के हेतु इन यज्ञ-दानादि सकाम कर्मों में प्रवृत्त होने की अपेक्षा संयम का धारण करना ही श्रेयस्कर है, इसी में आत्मा का हित निहित है तथा प्राणि-समुदाय का उपकार भी इसी से सिद्ध हो सकता है।
इसके अतिरिक्त ज्योतिष्टोमादि वेदोक्त यज्ञों की हिंसकता तो प्रसिद्ध ही है, इन यज्ञों में अनेक मूक प्राणियों का वध होता है और गोदानादि सकाम-कर्म भी सावध प्रवृत्ति के अन्तर्भूत ही हैं, इसलिए मोक्षपथगामी जीव को इन सदोष प्रवृत्तियों से पराङ्मुख होकर स्वपर-कल्याण के निमित्त केवल संयममयी निर्दोष प्रवृत्तियों में ही प्रवृत्त होना चाहिए। अतः इन्द्र ने राजर्षि नमि के प्रति जो यज्ञ, दानादि के अनुष्ठान का प्रस्ताव किया था, उसका महात्मा नमि ने बहुत ही युक्ति-युक्त तथा मननीय उत्तर दिया है।
एयमटुं निसामित्ता, हेउ-कारण-चोइओ । तओं नमि रायरिसिं, देविन्दो इणमब्बवी ॥ ४१ ॥
एनमर्थं निशम्य, हेतु-कारण-नोदितः ।
ततो नमिं राजर्षि देवेन्द्र इदमब्रवीत् ॥ ४१ ॥
... (शब्दार्थ स्पष्ट है) मूलार्थ–राजर्षि नमि के इस पूर्वोक्त उत्तर को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित होकर इन्द्र उनसे फिर इस प्रकार कहने लगा— टीका-इस गाथा का भावार्थ सर्वथा स्पष्ट है, अतः विशेष विवेचनिका की आवश्यकता नहीं है।
घोरासमं चइत्ताणं, अन्नं पत्थेसि आसमं । इहेव पोसहरओ, भवाहि मणुयाहिवा! || ४२ ॥ __घोराश्रमं त्यक्त्वा खलु, अन्यं प्रार्थयसे आश्रमम् |
इहैव पौषधरतः, भव मनुजाधिप! |॥ ४२ ॥ ____पदार्थान्वयः–घोरासमं–घोराश्रम-गृहस्थाश्रम को, चइत्ताणं त्यागकर, अन्नं अन्य, आसमं—आश्रम की, पत्थेसि—प्रार्थना करते हो, चाह करते हो, इहेव—यहां पर ही तुम, पोसह–पौषध में, रओ-अनुरक्त, भवाहि—होओ, मणुयाहिवा-हे मनुजाधिप! ... मूलार्थ हे मनुजाधिप! आप घोराश्रम अर्थात् गृहस्थाश्रम का परित्याग करके अन्य आश्रम की प्रार्थना कर रहे हो यह ठीक नहीं, आप यहां पर ही रहकर पौषध व्रत का आचरण करें।
टीका-शास्त्रों में चार प्रकार के आश्रमों का उल्लेख है—ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। इन चारों में गृहस्थ आश्रम को ही सबसे अधिक भारवाही होने से घोर कहा गया है, क्योंकि |
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 331 । णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं ।