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________________ का नहीं। क्योंकि जैन साधु किसी भी प्रकार का निमंत्रण स्वीकार करके किसी के घर में बैठकर भोजन नहीं करते हैं । एतदर्थ ही 'श्रमण' शब्द के साथ 'ब्राह्मण' शब्द का उल्लेख किया गया है। एयमट्ठ निसामित्ता, उ-कारण- चोइओ । तओ नमी रायरिसी, देविन्दं इणमब्बवी ॥ ३६॥ एनमर्थं निशम्य, हेतु-कारण-नोदितः I ततो नमी राजर्षिः, देवेन्द्रमिदमब्रवीत् || ३६ || (शब्दार्थ स्पष्ट है) मूलार्थ — इन्द्र के इस यजन - सम्बन्धी कथन को सुनकर राजर्षि नमि ने हेतु और कारण से प्रेरित होकर इन्द्र को इस प्रकार उत्तर दिया टीका — मूलार्थ से ही भावार्थ स्पष्ट हो रहा है । जो सहस्सं सहस्साणं, मासे मासे गवं दए तस्सावि संजमो सेओ, अदिन्तस्स वि किंचणं ॥ ४० ॥ यः सहस्रं सहस्राणां, मासे मासे गवां दद्यात् । तस्मादपि संयमः श्रेयः, अददतोऽपि किञ्चन ॥ ४० ॥ पदार्थान्वयः – जो — जो, सहस्सं - सहस्र को, सहस्साणं - सहस्र गुणा करके अर्थात् दस लाख, गवं — गायों को, मासे - मासे – प्रति मास, दए – दे, तस्स्रावि— उससे भी, संजमो - संयम, सेओ - श्रेयस्कर और, किंचणं - जो किंचित् मात्र भी, अदिन्तस्स वि – नहीं देता, उससे भी (संयम श्रेयस्कारी है) । मूलार्थ — जो व्यक्ति प्रतिमास दस लाख गौओं का दान करता है, उसके उस दान से संयम ही श्रेष्ठ है तथा जो कुछ नहीं देता उसके लिए भी संयम ही श्रेयस्कारी है । टीका - इस गाथा में सावद्य और निरवद्य वृत्ति का विवेचन किया गया है तथा निरवद्य वृत्ति की श्रेष्ठता और उसके द्वारा ही प्राणियों का अधिक उपकार बताया गया है। एक व्यक्ति प्रतिमास दस लाख गौओं का दान करता है तथा दूसरा व्यक्ति दान आदि कुछ भी नहीं करता, परन्तु इन दोनों के लिए वास्तविक हित का साधन संयम ही है, क्योंकि संयम निरवद्य प्रवृत्ति है, आश्रवों का निरोध होने ★ तुलना करो धम्मपद की इस गाथा से 'मासे मासे सहस्सेन जो यजेय सतं समं । एक च भावितत्तानं मुहुत्तमिपि पूजये ॥' (सहस्स वग्ग. ७ गा.) छाया - मासे - मासे सहस्रेण, यो यजेत शतं समाः । एकं च भावितात्मानं मुहूर्तमपि पूजयेत् ॥ इसके सम्बन्ध में अन्य विचारणीय बातों के लिए देखो परिशिष्ट नं. १ । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 330 णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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