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हेउ - कारण - चोइओ 1
एयमट्ठ निसामित्ता, तओनम रायरिसिं, देविन्दो इणमब्बवी ॥ ३७ ॥
नमर्थं निशम्य, हेतु-कारण-नोदितः | ततो नमिं राजर्षि, देवेन्द्र इदमब्रवीत् || ३७ ॥ (शब्दार्थ स्पष्ट है)
मूलार्थ - इस प्रकार राजर्षि नमि के उक्त वक्तव्य को सुनकर देवेन्द्र ने फिर हेतु और कारण से प्रेरित होकर उनसे इस तरह का प्रश्न किया
टीका
— इस गाथा का अर्थ सर्वथा स्पष्ट है, अतः विशेष विवेचना की आवश्यकता नहीं है। विउले जन्ने, भोइत्ता समणमाह
।
जड़त्ता दत्ता भोच्चा य जिट्ठा य, तओ गच्छसि खत्तिया ! ॥ ३८ ॥
याजयित्वा विपुलान् यज्ञान्, भोजयित्वा श्रमणान् ब्राह्मणान् । दत्त्वा भुक्त्वा च इष्ट्वा च ततो गच्छ क्षत्रिय ! ॥ ३८ ॥ पदार्थान्वयः – विउले—– बहुत से, जन्ने-— यज्ञों को, जइत्ता – करवा करके, समण - शाक्यादि भोत्ता – भोजन करा कर, दत्ता - दक्षिणा देकर, य— और, जिट्ठा —— स्वयं यज्ञ करके, तओ - फिर, खत्तिया — हे क्षत्रिय!,
भिक्षुओं, माहणे – ब्राह्मणादि को, भोच्चा - भोजन करके, य— और, गच्छसि — तुम्हें जाना चाहिए। .
मूलार्थ - बहुत से विशाल यज्ञ करके, श्रमणों और ब्राह्मणों को भोजन करा कर, दक्षिणा देकर, शब्दादि विषयों को भोगकर तथा स्वयं यज्ञ करके हे क्षत्रिय ! फिर तुम्हें संयम पथ पर जाना चाहिए ।
टीका- राजर्षि नमि में राग-द्वेष की मात्रा कहां तक है, इस बात का निर्णय करने के बाद, अब देवेन्द्र उनके तत्त्वार्थ- श्रद्धान का निश्चय करने के लिए उनसे फिर प्रश्न करता है । इन्द्र के प्रश्न का भावार्थ यह है किं.
हे क्षत्रिय ! दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व आपको बड़े-बड़े वेदोक्त यज्ञों का अनुष्ठान करना चाहिए, श्रमणों अर्थात् शाक्य- भिक्षुओं और ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए तथा दक्षिणा देनी चाहिए एवं मनोज्ञ पदार्थों का भली प्रकार उपयोग करके और यज्ञादि का सम्पादन करके फिर आपको दीक्षा के लिए प्रयाण करना चाहिए, क्योंकि क्षत्रियों के लिए राजसूय और अश्वमेधादिक यज्ञों का स्पष्ट विधान है और क्षत्रिय लोग ही उनका सम्पादन कर सकते हैं। इन यज्ञों से अनेक प्राणियों का हित होता है, सबका हित करना यह भले पुरुषों का सबसे मुख्य कार्य है, इसलिए इन उक्त कर्मों को करने के बाद आपको दीक्षा के लिए उद्यत होना चाहिए ।
यहां पर श्रमण शब्द से बौद्ध भिक्षु या अन्य संन्यासियों का ग्रहण ही अभिप्रेत है, जैन साधुओं श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 329 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं