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तहेव—इसी प्रकार, लोहं—लोभ, च—और मिथ्यात्वादिक, दुज्जयं—दुर्जय, अप्पाणं—आत्मा, अप्पे जिए—आत्मा के जीते जाने पर, सव्वं—सब, जियं—जीते गए, च-एव—(पादपूर्ति में हैं)। ___ मूलार्थ हे साधक! पांचों इन्द्रियों, क्रोध, मान, माया और लोभ आदि को जीतकर तब दुर्जय जो मन है उसको जीतो, क्योंकि एक मन को जीत लेने पर अन्य सब जीते हुए ही हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि आत्मा का जीतना सबसे अधिक कठिन है।
___टीका राजर्षि नमि कहते हैं कि आत्मा दुर्जेय है, अर्थात् मन का निग्रह करना अत्यन्त कठिन है। उसका निग्रह करना ही आत्म-विजय है। इस मन को जीत लेने पर फिर किसी वस्तु का जीतना शेष नहीं रह जाता। इन्द्रियां और कषाय आदि तो मन के अनुचर विशेष हैं, इसीलिए इनको दुर्जेय न कहते हुए केवल मन को ही दुर्जेय बताया गया है। क्रोध, मान, माया और लोभ आदि कषाय—जो
आत्मा के वैभाविक परिणाम हैं वे सब इसी मन रूप आत्मा से प्रेरित होकर अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्त होते हैं, इसीलिए आत्म-निग्रह ही इस ज्ञानात्मा की सर्वतोभावी विजय है। इससे सिद्ध हुआ कि जिसने पांचों इन्द्रियों और उनके पांचों विषयों तथा क्रोध, मान, माया और लोभ अथवा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इत्यादि पर आत्मा के निग्रह के द्वारा विजय प्राप्त कर ली है, उसने मानो सबको जीत लिया है—वह विश्व-विजयी बन गया है। फिर उसके लिए कोई अजेय वस्तु नहीं रह जाती। ऐसे आत्म-विजेता के सामने विश्व की सारी, विभूतियां हाथ जोड़े खड़ी रहती हैं। वास्तव में देखा जाए तो—'मन जीते जग जीत' यह लोकोक्ति सर्वथा सत्य और निर्धान्त है, क्योंकि मन के निग्रह पर ही आत्मा की उत्क्रान्ति या आत्मिक गुणों का विकास निर्भर है, इसलिए मुमुक्षु पुरुषों को सर्व प्रकार से आत्म-निग्रह में ही यत्नशील होना चाहिए, यही उसकी सच्ची विजय है ।
राजर्षि नमि ने इन्द्र के सांसारिक क्षात्र-धर्म सम्बन्धी प्रश्न का उत्तर देते हुए त्याग-प्रधान क्षात्र-धर्म का जो रहस्यपूर्ण स्वरूप का प्रतिपादन किया है, वह उसके बुद्धि-चमत्कार का सजीव चित्रण है। त्याग-मार्ग में प्रविष्ट हुए एक सच्चे क्षत्रिय को किस प्रकार के युद्ध में प्रवृत्त होना चाहिए, तथा किसके साथ युद्ध करना चाहिए एवं किस प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सन्नद्ध होकर किस प्रकार की रणभूमि में उतरना चाहिए और इस प्रकार के युद्ध में उसे किस अंश तक विजय प्राप्त हो सकती है, इत्यादि समस्त बातों का उन्होंने इस प्रसंग में अतीव युक्ति-संगत वर्णन कर दिया है और इन्द्र के प्रश्न का उत्तर भी यथार्थ रूप से दे दिया है, परन्तु इन्द्र अभी ऋषि के मुखारविन्द से कुछ और ग्रहणीय उपदेश श्रवण करना चाहता है, इसलिए उसने अपने प्रश्नों की परम्परा को अभी बन्द नहीं किया और फिर कहा
★ वैदिक सम्प्रदाय के सर्वमान्य ग्रन्थों में भी इस विषय का पूर्ण समर्थन मिलता है। भगवद्गीता में लिखा है कि
'उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः' । अर्थात् आत्मा से (ज्ञानात्मा से) आत्मा का उद्धार करो, किन्तु उसका पतन न करो, क्योंकि आत्मा-ज्ञानात्मा ही आत्मा का बन्धु है और आत्मा-अज्ञानात्मा ही आत्मा का शत्रु है।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 328 | णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं