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आत्मनैव युद्धयस्व, किं ते युद्धेन बाह्यतः आत्मनैवात्मानं, जित्त्वा सुखमेधते ॥ ३५ ॥
पदार्थान्वयः–अप्पाणं—आत्मा के साथ, एव – ही, जुज्झाहि-युद्ध करो, किं ते क्या है तुझ को, बज्झओ - - बाहर के, जुज्झेण - युद्ध से, अप्पाणमेव — आत्मा से ही, अप्पाणं - आत्मा को, जइत्ता —जीत कर, सुहं—–सुख को, एहए – (यह जीव) प्राप्त कर सकता है।
मूलार्थ - हे साधक ! तू आत्मा से ही युद्ध कर, तेरा बाहर के युद्ध से क्या काम ? क्योंकि आत्मा से आत्मा को जीत करके ही यह जीव सुख को प्राप्त कर सकता है ।
टीका- राजर्षि नमि कहते हैं कि हे साधक ! तू आत्मा से ही युद्ध कर, अर्थात् आत्मा के मान-अहंकार आदि शत्रुओं से युद्ध कर, बाहर के युद्धों से तेरा कोई भी प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है, अर्थात् इन बाहर के शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेने से तू सर्व विजयी नहीं बन सकता, जब तक कि तेरे अन्दर के काम-क्रोध आदि प्रबल शत्रु परास्त न हो जाएं। इसलिए यदि तू सर्वविजयी बनना चाहता है तो प्रथम इन अन्तरंग शत्रुओं के साथ युद्ध कर तथा इन समस्त शत्रुओं का नायक — सेनापति अज्ञान या अज्ञानात्मा है । उसको जीत लेने से अन्य सबका जीतना आसान हो जाता है, अतः अज्ञानात्मा को ज्ञानात्मा के द्वारा युद्ध में परास्त करके तू अपने अभिलषित सुख को प्राप्त कर सकता है ।
यहां पर ‘धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं' इस व्यापक नियम के आधार पर 'एधते' का प्राप्ति अर्थ किया गया । 'अप्पाणं' यह तृतीया के अर्थ में द्वितीया का होना प्राकृत के नियमानुसार जानना
चाहिए ।
यहां पर आत्मा शब्द से मन का ग्रहण किया गया है, इसलिए आत्म-निग्रह अर्थात् मनोनिग्रह तथा आत्मा को जीतना अर्थात् मन को जीतना यह भाव अभिप्रेत है * ।
मन और आत्मा का समानाधिकरण होने से ही सूत्रकर्त्ता ने यहां मन के अर्थ में आत्म शब्द का प्रयोग किया है।
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अब इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए राजर्षि नमि फिर इन्द्र के प्रति कहते हैंपंचिन्दियाणि कोहं, माणं मायं तहेव लोहं च ।
दुज्जयं चेव अप्पाणं, सव्वं अप्पे जिए जियं ॥ ३६ ॥ पंचेन्द्रियाणि क्रोधं, मानं मायां तथैव लोभं च । दुर्जयं चैवमात्मानं, सर्वमात्मनि जिते जितम् || ३६ ॥ पदार्थान्वयः—पंचिन्दियाणि – पांचों इन्द्रियों, कोहं— क्रोध, माणं
मान,
मायं
अत्रात्मशब्देन मनः । सर्वत्र सूत्रत्वान्नपुंस्त्वञ्च, अतति - गच्छति प्राप्नोति नवनवानि अध्यवसायस्थानान्तराणीत्यात्मा मन उच्यते ' इति वृत्तिकारः ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 327 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं
-माया,