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यः सहस्रं सहस्राणां, संग्रामे दुर्जये जयेत् । .
एकं जयेदात्मानं एष तस्य परमो जयः ॥ ३४ ॥ पदार्थान्वयः-जो-जो, सहस्सं—हजार को, सहस्साणं हजार से गुणा करने पर अर्थात् दस लाख सुभंटों को, दुज्जए-दुर्जय, संगामे—संग्राम में, जिणे जीत ले, एगं—एकं, अप्पाणं—आत्मा को, जिणेज्ज–जीत ले, एस—वह, से-उसका, परमो—उत्कृष्ट, जओ-जय हैं।
मूलार्थ दुर्जेय संग्राम में दस लाख सुभटों की जीतने वाले की अपेक्षा एक आत्मा को जीतने वाला अधिक बली है तथा उसकी वह विजय सर्वोत्कृष्ट विजय है।
टीका-राजर्षि नमि इन्द्र से कहते हैं कि दस लाख योद्धाओं को संग्राम-भूमि में पछाड़ने वाले बलशाली योद्धा की अपेक्षा आत्म-निग्रह करने वाला आत्मा पर विजय प्राप्त करने वाला अधिक बलवान् और पराक्रमशील है, क्योंकि लाखों सुभटों के साथ युद्ध करने वाला और उनको पराजित करने वाला शूरवीर भी आत्म-निग्रह करके कषायों पर विजय प्राप्त करने में असफल रहता है। उसका शारीरिक बल भी आत्म-निग्रह के सामने कुण्ठित हो जाता है।
तात्पर्य यह है कि कषायों पर विजय प्राप्त करने के बदले वह उनसे स्वयं पराजित हो जाता है, इसलिए विषय-कषायों को जीतना ही वास्तव में विजय है और इनको जीतने वाला ही सच्चा सुभट और सच्चा विजेता है। जिस पुरुष ने आत्म-निग्रह करके कषायों पर विजय प्राप्त कर ली है उसी का अन्य जीवों पर शासन हो सकता है, वही सबको वश में करने की शक्ति अपने अन्दर रखता है, क्योंकि अपने आप पर विजय प्राप्त किए बिना दूसरों को पराजित नहीं किया जा सकता, अतएव आत्म-निग्रह करने वाले ऋषि-मुनि अपने वरदानों और अभिशापों से जो कार्य कर सकते हैं, वह बड़े-से-बड़े चक्रवर्ती के लिए भी अशक्य है। इससे सिद्ध हुआ कि आत्मा पर विजय प्राप्त करने के लिए ही विवेकशील साधकों को यत्न करना चाहिए जिससे कि वह सब पर विजय प्राप्त कर सके।
___ अब रही इन राजाओं को वश में करने की बात, वह तो इस कषाय-विजय या आत्म-निग्रह के सामने बहुत ही तुच्छ है। आत्म-विजय प्राप्त करने के बाद तो ये सब बाह्य शत्रु स्वयं आकर साधक के चरणों में गिर पड़ते हैं, इसलिए उनके विजय की आप कोई चिन्ता न करें। यही राजर्षि नमि के उक्त कथन का आशय है।
सहस्र से सहस्र को गुणा करने से दस लाख बनता है। सहस्सं+सहस्साणं का अभिप्राय हजार गुणा हजार, अर्थात् दस लाख ही है, हजारों नहीं।
अन्य सुभटों पर विजय प्राप्त करने की अपेक्षा आत्म-विजय को सबसे अधिक कठिन बताने के बाद अब उसी आत्मा के साथ युद्ध करने का उपदेश देते हुए कहते हैं
अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ? अप्पाणमेवमप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए ॥ ३५ ॥
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 326 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं