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मूलार्थ जो राजा लोग आपको नमस्कार नहीं करते हैं उनको अपनी आधीनता में स्थापित करके फिर आपको साधना-पथ पर जाना चाहिए।
टीका—इस प्रश्न से इन्द्र ने राजर्षि नमि के अन्तःकरण की परीक्षा करने का प्रयत्न किया है, अर्थात् उनके अन्दर द्वेष और मान की मात्रा है या नहीं, इसकी परीक्षा लेने के लिए उसने यह प्रस्ताव राजर्षि के समक्ष रखा है, क्योंकि जिस व्यक्ति के अन्दर द्वेष की अग्नि सुलग रही हो, उसके सम्मुख यदि उसके किसी शत्रु की प्रशंसा की जाए तो उसकी आन्तरिक द्वेष-ज्वाला एकदम भड़क उठती है
और उसके अन्दर रहा हुआ मान उस ज्वाला को अधिक प्रदीप्त करने के लिए पवन के तीव्र वेग का काम करता है। इसलिए राजर्षि नमि से इन्द्र कहता है कि महाराज! आप सबसे पहले उन राजाओं को अपने वश में कर लें जो राजा आपको नमस्कार नहीं करते हैं, आपकी आज्ञा में नहीं चलते हैं। उसके अनन्तर ही इस दीक्षा-मार्ग में प्रवृत्त हों, यदि आपने ऐसा न किया तो सम्भव है कि आपके चले जाने के बाद वे आपके राज्य को छिन्न-भिन्न करके आपके उत्तराधिकारी को अपने वश में कर लें, यदि आप उनको पराजित करके अपने वश में कर लें तो फिर किसी प्रकार के उपद्रव की सम्भावना ही न रहेगी। ___इन्द्र का आन्तरिक संकेत यही है कि पहले बाह्य शत्रुओं को वश में करके ही आप संयम पथ पर कदम बढ़ाएं जिससे कि आपकी आत्मा को संयम-मार्ग पर चलते हुए कोई कष्ट न हो।
एयमढं निसामित्ता, हेउ-कारण-चोइओ । तओ नमी रायरिसी, देविंदं इणमब्बवी ॥ ३३ ॥
एनमर्थं निशम्य, हेतु-कारण-नोदितः । ततो नमी राजर्षिः, देवेन्द्रमिदमब्रवीत् ॥ ३३ ॥
(शब्दार्थ स्पष्ट है)। मूलार्थ-देवेन्द्र के इस प्रश्न को सुनकर राजर्षि नमि ने हेतु और कारण से प्रेरित होकर उत्तर में देवेन्द्र से इस प्रकार कहा। टीका भावार्थ भी स्पष्ट है, अतः व्याख्या नहीं की जा रही है।
जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे । एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ* ॥ ३४ ॥
* १. तुलना करो धम्मपद (बौद्ध ग्रन्थ) की इस गाथा से
'ये सहस्सं सहस्सेन संगामे मानुसे जिने । एक च जेय्यमत्तानं, स वै संगाम जुत्तमो' ॥
(सहस्स वग्ग-४ गां.) 'यः सहस्रं सहस्रेण संग्रामे मानुषान् जयेत् ।
एकं च जयेदात्मानं, स वै संग्रामजिदुत्तमः' || श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 325 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं
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