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मूलार्थ यहां मनुष्यों के द्वारा अनेक बार मिथ्या दंड का प्रयोग होता है, जैसे कि चोरी आदि अपराध न करने वाले बांधे जाते हैं और अपराध करने वाले छोड़ दिए जाते हैं।
टीका-राजर्षि नमि इन्द्र से कहते हैं कि इस लोक में दंड के सम्बन्ध में बहुत कुछ विपरीत देखने में आता है। अज्ञानी जीवों के द्वारा मिथ्या दंड का अधिक प्रयोग होता है। बहुधा देखा गया है कि जो लोग निरपराध होते हैं, उनको कठोर-से-कठोर दंड दिया जाता है और जिन लोगों ने अपराध किया होता है वे मुक्त हो जाते हैं। इस विपर्यय का कारण अज्ञान ही है। इसलिए जब तक अज्ञान को दूर करके यथार्थ ज्ञान का सम्पादन नहीं किया जाता, तब तक यथार्थ रक्षा-कार्य का होना दुशक्य होता है। .
राजर्षि नमि के कथन का वास्तविक अभिप्राय बड़ा ही सुन्दर है। वे इन्द्र को एक उत्तम आध्यात्मिक रहस्य बड़े सादे से रूपक में समझा रहे हैं। उनके कथन का आशय यह है कि आत्मा की इस शरीर रूपी नगरी में पांच इन्द्रियां और चार कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) रूप चोर बसते हैं। वे इस आत्मा के ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप धन का अपहरण करने के लिए हर समय उद्यत रहते हैं, अतः जब तक उन चोरों को पकड़कर दंड न दिया जाएगा तब तक शांति नहीं हो सकती। मैंने तो उन चोरों का अब भली-भांति पता लगा लिया है और उनको पकड़कर निर्वासित करने का मैं यत्न कर रहा हूं।
एयमटुं निसामित्ता, हेउ-कारण-चोइओ । तओ नमिं रायरिसिं, देविंदो इणमब्बवी ॥ ३१ ॥
एनमर्थं निशम्य, हेतु-कारण-नोदितः । ततो नमिं राजर्षि, देवेन्द्र इदमब्रवीत् || ३१ || ,
(शब्दार्थ स्पष्ट है) मूलार्थ राजर्षि नमि के इस पूर्वोक्त कथन को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित इन्द्र फिर उनसे इस प्रकार कहने लगाटीका—मूलार्थ की स्पष्टता के कारण व्याख्या की अपेक्षा नहीं है।
जे केइ पत्थिवा तुझं, नानमन्ति नराहिवा! | . वसे ते ठावइत्ताणं, तओ गच्छसि खत्तिया ॥३२॥
ये केचन पार्थिवास्तुभ्यं, न नमन्ति नराधिप! |
वशे तान्स्थापयित्वा, ततो गच्छ क्षत्रिय! || ३२ ॥ पदार्थान्वयः–जे केइ—जो कोई, पत्थिवा-राजा लोग, तुझं—आपको, नराहिवा हे नराधिप!, नानमन्ति–नमस्कार नहीं करते हैं, ते—उनको, वसे—अपनी आधीनता में, ठावइत्ता स्थापित करके, तओ तदनन्तर, खत्तिया हे क्षत्रिय!, गच्छसि तुम्हें जाना चाहिए। णं-(वाक्यालंकार में है)।
श्रा उत्तराध्ययन सत्रम / 324 / णवम नमिपवज्जाणामज्झयण
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