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________________ प्रत्येक पद की निरुक्ति का बोध भी नितान्त अपेक्षित है। कारण कि निरुक्ति के द्वारा जो अर्थ . उपलब्ध होता है, वह प्रायः असंदिग्ध अथच स्पष्ट होता है । निरुक्ति और नियुक्ति ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। जैनागमों में निर्युक्त्यनुगम और सूत्रानुगम वर्णन में निर्युक्त्यनुगम के—निक्षेप-निर्युक्ति, उपोद्घात-निर्युक्ति और सूत्रस्पर्शी - नियुक्ति, इस प्रकार तीन भेद वर्णन किए गए हैं । उपोद्घात नियुक्ति के द्वारा सूत्रगत अध्ययनों और गाथाओं की उत्पत्ति का बोध होता है । सूत्रस्पर्शी नियुक्ति से सूत्र के अवयवार्थ का ज्ञान होता है, नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव – इन चार निक्षेपों के द्वारा सूत्रार्थ के व्याख्यान को निक्षेप - नियुक्ति कहते हैं । इनका विशेष वर्णन अनुयोगद्वार सूत्र से जान लेना चाहिए । इसके अतिरिक्त, अध्ययन - विधि में सूत्रगत मूलपाठ का उच्चारण भी शुद्ध और बोध - पूर्वक होना चाहिए। उदात्त, अनुदात्त और स्वरित इन तीनों की घोषसंज्ञा है । तात्पर्य यह है कि जिस सूत्र में जो स्वर हो, उसको उसी स्वर से उच्चारण करना घोष - पूर्वक उच्चारण करना कहलाता है। इसी विधि से किया गया सूत्रपाठ शुद्ध कहलाता है। इस प्रकार उपरोक्त रीति से विधि पूर्वक किया हुआ श्रुत का अध्ययन ही सफल अर्थात् अभीष्ट फल के देने वाला है, परन्तु वह भी उपयोग - पूर्वक ही होना चाहिए, अन्यथा उपयोगशून्य अध्ययन केवल द्रव्याध्ययन ही है, जो कि आत्मशुद्धि के लिए पर्याप्त नहीं। इसलिए सूत्रों के पाठ और अर्थों का उपरोक्त विधि के अनुसार उपयोग - पूर्वक मनन और चिन्तन करने की ओर सदाचारी जिज्ञासुओं को अवश्य ध्यान देना चाहिए, जिससे कि श्रुतज्ञान के दिव्य प्रकाश द्वारा उनका आत्मगत अन्धकार शीघ्र ही नष्ट हो सके । उत्तराध्ययन और धम्मपद शास्त्रकार ने श्रुतज्ञान को सबसे अधिक और सबका उपकारी माना है। इसका दिव्य प्रकाश अन्तर और बाह्य दोनों प्रकार के जगत् को आलोकित कर देता है। श्रुतज्ञान की पुनीत जलधारा आत्मगत कर्म-मल को धो डालने के लिए अपने में पर्याप्त सामर्थ्य रखती है । जिंस आत्मा ने इस पुण्य स्रोत में एक बार श्रद्धा-पूर्वक गोता लगाकर अपने आत्मगत कर्म - मल को धो डालने का प्रयत्न किया, निस्सन्देह वह कृत-कृत्य हो गया। इसलिए श्रुतज्ञान की महिमा अपार है। शास्त्रकारों ने श्रुतज्ञान के अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य इस प्रकार दो भेद किये हैं । उनमें अंग बाह्य श्रुत के भेदों में सबसे प्रथम नाम उत्तराध्ययन का आया है। दूसरे धर्म-कथानुयोग का प्रतिपादक होने से इसमें धर्म-सम्बन्धी सभी विषयों का बड़ी उत्तमता से वर्णन किया गया है। आचार, नीति और धर्म-सम्बन्धी विषयों के १. सुयनाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा – अंगपविट्ठे चेव अंगवाहिरे चेव । (स्थानांग सू० स्था० २ १ उ० १ सू० ७१ ) तथा नन्दीसूत्र में अंगबाह्य के आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त, ऐसे दो भेद करके आवश्यक व्यतिरिक्त के भी उत्कालिक और कालिक ये दो भेद किए गए हैं। उनमें कालिक सूत्रों की गणना करते हुए उत्तराध्ययन का निर्देश सबसे पहले किया गया है । यथा - "कालियं अणेगविहं पण्णत्तं तं जहा—-उत्तराज्झयणइं" इत्यादि । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 30 / प्रस्तावना
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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