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________________ प्रतिपादन की जो पद्धति इसमें दृष्टिगोचर होती है, उसका अन्यत्र प्राप्त होना दुर्लभ है। जिस प्रकार सूर्य के उदय होने से अन्धकार भाग जाता है, उसी प्रकार इस सूत्र में प्रतिपादित शिक्षाओं के बोध से आत्मगत अज्ञानान्धकार भी शीघ्र ही दूर हो जाता है। इससे अधिक इसका और क्या महत्व हो सकता है कि इसमें प्रतिपादन किए गए विषयों को जैन-धर्म के प्रतिस्पर्धी बौद्ध-धर्म ने भी अपने धार्मिक ग्रन्थों में आदरणीय स्थान दिया है। उदाहरणार्थ धम्मपद को लीजिए। यह बौद्ध-धर्म का सर्वमान्य धर्म-ग्रन्थ है। इसमें उत्तराध्ययन की बहुत-सी गाथाएं तो कुछ शब्द-परिवर्तन के साथ ज्यों की त्यों ग्रहण कर ली गई हैं और अनेक स्थलों में केवल नाम मात्र का परिवर्तन किया गया है, परन्तु विषय सम्बन्धी चर्चा वही है। अधिक क्या कहें, यदि विचार-दृष्टि से देखा जाए तो धम्मपद की दृष्टि का मूल स्रोत उत्तराध्ययन ही प्रतीत होता है। उसमें स्थान-स्थान पर उत्तराध्ययन की छाया के दर्शन होते हैं। पाठक-गण नीचे दिए गए उत्तराध्ययन और धम्मपद के कतिपय उद्धरणों से इस बात की जांच करें(१) मासे मासे उ जो बालो, कुसग्गेणं तु भुंजए | न सो सुअक्खायधम्मस्स, कलं अग्घइ सोलसिं || __ (उत्तराध्ययन सू० अ० ६, गा० ४४) (१) मासे मासे कुसग्गेनं, बालो भुजेथ भोजनं । न सों संखतधम्मानं, कलं अग्घति सोलसिं ॥ (धम्मपद बालवग्ग ५, गा० ११) (२) जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे । एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ ॥ (उत्तराध्ययन सू० अ० ६, गा० ३४) (२) यो सहस्सं सहस्सेनं, संगामे मानुसे जिने । एकं च जेय्यमत्तानं, स वै संगामजुत्तमो ॥ (धम्मपद सहस्सवग्गो, गा० ४) (३) जहा पउमं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा । एवं अलित्तो कामेहिं, तं वयं बूम माहणं ॥ ___ (उत्त० सू० अ० २५, गा० २७) (३) वारि पोक्खरपत्तेव, आरग्गोरिव सासपो । यो न लिम्पति कामेसु,तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥ (धम्मपद ब्राह्मण वग्ग, गा० १६) श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 31 / प्रस्तावना
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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