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सम्पर्क नहीं है, वह बताया है। तब इन दोनों भिन्न दृष्टियों से इन्द्र का प्रश्न और राजर्षि का उत्तर ये दोनों ही संगत प्रतीत होते हैं।
एयमÉ निसामित्ता, हेउ-कारण-चोइओ । तओ नमिं रायरिसिं, देविन्दो इणमब्बवी ॥ १७ ॥
एनमर्थं निशम्य, हेतुकारणनोदितः ।
ततो नमि राजर्षि, देवेन्द्र इदमब्रवीत् || १७ || मूलार्थ—इसके अनन्तर अपने प्रश्न का उत्तर प्राप्त कर लेने के बाद पुनः हेतु एवं कारण से प्रेरित इन्द्र राजर्षि नमि से कहते हैं, अर्थात् इन्द्र ने उनसे जो आगे प्रश्न किया है अब उसको बताते हैं।
टीका—मूलार्थ से ही भावार्थ स्पष्ट हो रहा है। इन्द्र प्रश्न करता है
पागारं कारइत्ता णं, गोपुरट्टालगाणि य । उस्सूलग सयग्घीओ, तओ गच्छसि खत्तिया! ॥ १८॥
प्राकारं कारयित्वा, गोपुराट्टालकानि च ।
उस्सूलकाः शतघ्नीः, ततो गच्छ क्षत्रिय! |॥ १८ ॥ पदार्थान्वयः–खत्तिया हे क्षत्रिय!, पागारं-किला, कारइत्ताणं बनवाकर, गोपुर–नगर के मुख्य द्वार, य—और, अट्टालगाणि—प्राकार के ऊपर युद्ध करने वाले स्थान, उस्सूलग—कोट की खाई
और, सयग्घीओ-शतघ्नी-तोपें आदि शस्त्र-अस्त्र बनवाकर, तओ तदनन्तर गच्छसि तुझे जाना चाहिए।
मूलार्थ हे क्षत्रिय! प्रथम किला बनवाकर, गोपुर, अट्टालिका और किले की खाई तैयार करवाकर तथा उन पर तोपें आदि अस्त्र-शस्त्र लगवाकर फिर तुम्हें नगर को छोड़कर जाना चाहिए। ____टीका—यहां पर इन्द्र ने राजर्षि नमि को जो सुझाव दिया है वह साधना-क्षेत्र के लिए एक विलक्षण सुझाव है। इन्द्र कहते हैं कि हे राजन्! यदि आप का दीक्षा के लिए दृढ़ आग्रह है तो आप प्रथम इतने काम करके फिर दीक्षा ग्रहण करें। प्रथम तो मिथिला नगरी की रक्षा के लिए एक किला बनवाओ, फिर उसका अर्गलायुक्त दुर्ग-द्वार बनवाओ, दुर्ग के ऊपर अट्टालिकाएं तैयार कराओ, जिनमें खड़े होकर योद्धा युद्ध कर सकें तथा शत्रुओं को रोकने के लिए किले के चारों ओर एक गहरी खाई खुदवाओ एवं आक्रमणकारी शत्रुओं को परास्त करने के लिए तोपें और बन्दूकें आदि शस्त्रों को स्थापित कराओ। इन समस्त युद्ध-साधनों के तैयार हो जाने पर फिर आप खुशी से जा सकते हैं।
ये सब बातें मैंने इसलिए आपसे कही हैं कि आप क्षत्रिय हैं। क्षत्रियों का मुख्य धर्म है प्रजा का पालन करना और भय से उसकी रक्षा करना । 'क्षतात्-भयात् त्रायते इति क्षत्रियः' अर्थात् जो भय से रक्षा
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श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 316 | णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं
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