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________________ अप्रिय नहीं रह जाता एवं किसी इष्ट वस्तु की प्राप्ति से हर्ष और अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति से शोक तथा अप्रिय वस्तु के संयोग से और प्रिय वस्तु के वियोग से किसी प्रकार का विषाद भी नहीं होता। ____इस कथन से इन्द्र के उस प्रश्न का भली-भान्ति उत्तर मिल जाता है जिसमें कि उसने राजर्षि नमि से यह कहा था कि 'आपकी मिथिला नगरी और आपके राज-महल अग्नि के द्वारा भस्मसात् हो रहे हैं और आप उनकी तरफ आंख उठाकर भी नहीं देख रहे। इत्यादि । यहां पर इतना और भी स्मरण रखना चाहिए कि राजर्षि नमि और देवराज इन्द्र के इस प्रश्नोत्तर में इन्द्र तो उनके सांसारिक व्यामोह की परीक्षा कर रहे हैं और मुनि उसको साधु-धर्म का स्वरूप बता रहे हैं। अब एकान्त निवास और संग-त्याग का फल बताते हैं बहुं खु मुणिणो भई, अणगारस्स भिक्खुणो । सव्वओ विप्पमुक्कस्स, एगन्तमणुपस्सओ ॥ १६ ॥ बहु खलु मुनेर्भद्रं, अनगारस्य भिक्षोः ।। . सर्वतो विप्रमुक्तस्य, एकान्तमनुपश्यतः || १६ || पदार्थान्ययः—बहुं बहुत, खु (निश्चयार्थक है), मुणिणो—मुनि को, भदं—कल्याण-सुख है, अणगारस्स–अनगार, भिक्खुणो भिक्षु को, सव्वओ सर्व प्रकार से, विप्पमुक्कस्स—बन्धनों से रहित को, एगन्तं—एकान्त, अणुपस्सओ—देखने वाले को । मूलार्थ-आत्मा की ओर देखने वाले मुनि को निश्चय ही बहुत सुख है, जो अनगार भिक्षु सर्व प्रकार के बन्धनों से रहित है उसका सदैवकाल सर्वत्र ही भद्र अर्थात् कल्याण होता है। ___टीका राजर्षि नमि इन्द्र से कहते हैं कि जो मुनि अपनी आत्मा में रमण करता है उसको निश्चय ही सुख प्राप्त होता है, क्योंकि पुत्र-कलत्रादि सांसारिक पदार्थों का बन्धन ही दुख का कारण है, अतः इन सर्व प्रकार के बन्धनों को तोड़ कर आत्म-दर्शन में निमग्न रहने वाले अनगार भिक्षु को जो कल्याणमय सुख प्राप्त होता है वह अवर्णनीय है। इस गाथा में एकान्त-वास और एकान्त-भावना के द्वारा निज आत्मा का अवलोकन करना ही एक मात्र सुख का साधन बताया गया है तथा इसी एकान्तवास और एकान्त भावना से साधक सुखों का अधिकारी बन सकता है। जिसने अपनी आत्मा का अनुभव नहीं किया वह प्रतिभाशाली होने पर भी सुख का अनुभव नहीं कर सकता। ___यहां पर इतना और भी स्मरण रखना चाहिए कि इन्द्र ने तो केवल क्षात्र-धर्म को मुख्य रखकर राजर्षि नमि से जलती हुई मिथिला नगरी के संरक्षण आदि के विषय में उनका ध्यान आकर्षित किया था और राजर्षि नमि ने केवल साधु-धर्म को लक्ष्य में रखकर उत्तर में उससे किसी प्रकार का भी अपना । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 315 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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