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________________ टीका अग्नि एवं वायु के प्रकोप से जलते हुए मिथिला के राज-महलों के सम्बन्ध में किए गए इन्द्र के प्रश्न का उत्तर देते हुए राजर्षि नमि कहते हैं कि 'देवेन्द्र! हम तो अपने ज्ञान, दर्शन और चारित्र में सुख-पूर्वक बसते हैं और जीते हैं। इस मिथिला-नगरी में वस्तुतः हमारा कुछ भी नहीं है, इसलिए मिथिला के जलने पर हमारी कोई भी वस्तु नहीं जल रही। राजर्षि नमि के कथन का अभिप्राय यह है कि जो मेरी वस्तु अर्थात् ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप आत्मा के स्वाभाविक धर्म हैं उन्हें तो कोई जला नहीं सकता और जो कुछ जल रहा है वह पर वस्तु है, अर्थात् मेरी नहीं है। तात्पर्य यह है कि अपनी वस्तु के संरक्षण के लिए सावधान रहना ही मेरा कर्तव्य है, दूसरों की वस्तुओं से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं, इसलिए मिथिला के दग्ध होने का मेरे ऊपर किसी प्रकार का भी उत्तरदायित्व नहीं है। इसी प्रकार रक्षा और दयालुता आदि के भी सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए, क्योंकि मैं उन सम्पूर्ण क्रियाओं से पृथक् हूं जिनका कि आरोप आप मेरे ऊपर कर रहे हैं। यदि इन वस्तुओं पर मेरा किसी प्रकार भी ममत्व या स्नेह होता तब तो इनकी ओर मेरा ध्यान आकृष्ट होता, परन्तु इनमें तो मेरा कुछ भी नहीं है। यही भाव आगामी गाथा में वर्णित है। अब इसी विषय को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं चत्तपुत्तकलत्तस्स, निव्वावारस्स भिक्खुणो । .. पियं न विज्जई किंचि, अप्पियं पि न विज्जई ॥१५॥ त्यक्तपुत्रकलत्रस्य, निर्व्यापारस्य · भिक्षोः । प्रियं न विद्यते किंचित्, अप्रियमपि न विद्यते || १५ ॥ पदार्थान्वयः–चत्त—छोड़ा है, पुत्त-कलत्तस्स—पुत्र-पत्नी आदि का सम्बन्ध जिसने, निव्वावारस्स—व्यापार-रहित, भिक्खुणो–भिक्षु को, किंचि–किंचित् मात्र भी, पियं—प्रिय, न विज्जई नहीं है, अप्पियंपि—अप्रिय भी, न विज्जई—नहीं है। , मूलार्थ जिस भिक्षु ने पुत्र-पली आदि का सम्बन्ध छोड़ दिया है और जो सभी सांसारिक व्यापारों से रहित हो चुका है, उसके लिए संसार का कोई भी पदार्थ प्रिय अथवा अप्रिय नहीं है। टीका—जो भिक्षु अपने पुत्र तथा पली आदि परिवार से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखता तथा जिसने सर्व प्रकार के सावध व्यापारों का परित्याग कर दिया है ऐसे भिक्षु की संसार के किसी भी पदार्थ में प्रीति अथवा अप्रीति नहीं रह जाती। तात्पर्य यह है कि उसका न तो किसी वस्तु में राग होता है और न किसी पदार्थ से द्वेष होता है। संसार के अन्दर सुख अथवा दुख की उत्पत्ति का कारण ममत्व है, ममत्व से ही संसार में सुख-दुख की भावना का उद्गम होता है। ममत्व के न रहने पर संसार की सुख-दुखमयी सारी विषम भावनाएं समता के समुद्र में विलीन हो जाती हैं, इसलिए सांसारिक पदार्थों पर से ममत्व को हटा लेने वाले मुमुक्षु जन की दृष्टि में कोई भी पदार्थ प्रिय अथवा श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 314 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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