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वायु से मिलकर अग्नि इनको भस्मसात् कर रही है, परन्तु आप इनकी ओर आंख उठाकर भी नहीं देख रहे, इसका क्या कारण है?
इन्द्र का यह प्रश्न भी बड़ा कौतूहल-वर्धक है। इन्द्र के कथन का आशय यह है कि जिस प्रकार आप अपने ज्ञान, दर्शन और चारित्र-रूप रत्नत्रय की रक्षा में प्रवृत्त हुए हो उसी प्रकार आपको अपनी प्रत्येक वस्तु की रक्षा करनी चाहिए। फिर आप दयालु और श्रेष्ठ नीतिज्ञ हैं, अतः आपका यह भी कर्तव्य हो जाता है कि अपनी दग्ध होती हई राजधानी को बचाने का प्रयत्न करें, परन्तु आप तो इस ओर तनिक ध्यान भी नहीं दे रहे । कृपया बताएं कि इसका क्या कारण है?
यहां पर इतना स्मरण रखना चाहिए कि इन्द्र का यह प्रश्न केवल स्नेह की दृष्टि को ले करके है, अर्थात् राजर्षि नमि का अन्तःपुर आदि में मोह है या नहीं, इन्द्र इस बात को स्पष्ट रूप से जानना चाहता है। इसके अतिरिक्त उक्त गाथा में अग्नि के साथ वायु का जो उल्लेख किया गया है वह इन दोनों का साहचर्य बताने के लिए किया गया है, अर्थात् वायु के बिना अग्नि नहीं रह सकती।
'तव' शब्द का यहां पर अध्याहार कर लेना चाहिए, अथवा—'तेणं' को तृतीयान्त 'तेन' और षष्ठ्यन्त 'ते' ते तव (णं वाक्यालंकार में) मानकर भी काम चल सकता है।
___ एयमटुं निसामित्ता, हेउ-कारण-चोइओ । तओ नमी रायरिसी, देविंदं इणमब्बवी ॥ १३ ॥
एनमर्थं निशम्य, हेतुकारणनोदितः । ततो नमी राजर्षिः, देवेन्द्रमिदमब्रवीत् ॥ १३ ॥
(पदार्थान्वय स्पष्ट है) मूलार्थ हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्र के उक्त अर्थ अर्थात् प्रश्न को सुनकर राजर्षि नमि ने इस प्रकार देवेन्द्र से कहा। टीका–गाथा का भाव स्पष्ट है, अतः व्याख्या अपेक्षित नहीं है।
सुहं वसामो जीवामो, जेसिं मो नत्थि किंचणं । मिहिलाए डज्झमाणीए, न मे डज्झइ किंचणं ॥ १४ ॥ - सुखं वसामो जीवामः, येषां मे नास्ति किंचन |
मिथिलायां दह्यमानायां, न मे दह्यते किंचन || १४ ॥ पदार्थान्वयः सुहं सुख-पूर्वक, वसामो—बसते हैं, जीवामो—जीते हैं, जेसिं—जिस करके मो-हमारा, किंचणं किंचिन्मात्र भी, नत्थि नहीं है, मिहिलाए मिथिला के, डज्झमाणीए जलने पर, किंचणं-किंचित् मात्र भी, मे—मेरा, न डज्झइ–नहीं जलता है।
मूलार्थ यहां हम सुख-पूर्वक जी रहे हैं, बसते हैं, हमारा इस नगरी में कुछ भी नहीं है, मिथिला के जलने पर मेरा कुछ भी नहीं जल रहा। ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 313 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं ।