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________________ तात्पर्य यह है कि वैराग्य रूप वायु के प्रबल वेग ने वृक्ष रूप मुझ को संसार से पृथक् कर दिया है, अब मैं संसारी बन्धु-जनों का भरण-पोषण करने वाला नहीं रहा, इसलिए निराश्रित हुए ये सम्बन्धीजन अपने पूर्व सुखों का स्मरण करते हुए आर्तनाद कर रहे हैं, क्योंकि इनको अब उन सुखों की उपलब्धि होना कठिन प्रतीत हो रहा है। ये लोग तो अपने निजी स्वार्थ के लिए रो रहे हैं इसमें मेरा कोई दोष नहीं है, अतः इनके आक्रन्दन या आर्तनाद का कारण मुझको बताना या मानना किसी प्रकार से भी न्याय-संगत नहीं कहा जा सकता। मेरी तो इस समय वही स्थिति है जो कि अपनी आयु को पूर्ण करके भूमि पर गिरे हुए वृक्ष की होती है और उसकी आयु में न्यूनाधिकता कभी हो नहीं सकती, इसलिए आपके उपालम्भ से मैं तो सर्वथा मुक्त हूं। एयमढें निसामित्ता, हेउकारणचोइओ । तओ नमिं रायरिसिं, देविन्दो इणमब्बवी ॥ ११ ॥ एनमर्थं निशम्य, हेतुकारणनोदितः । .. . ततो नमिं राजर्षि, देवेन्द्र इदमब्रवीत् || ११ || ... पदार्थान्वयः तओ तदनन्तर, एयमढें इस पूर्वोक्त अर्थ को, निसामित्ता–सुनकर, हेउकारण हेतु और कारण से, चोइओ—प्रेरित किया गया, देविन्दो—देवेन्द्र, नमिं रायरिसिं–राजर्षि नमि को, इणं-ऐसे, अब्बवी—कहने लगा। ___ मूलार्थ तदनन्तर पूर्वोक्त अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुआ इन्द्र राजर्षि नमि से इस प्रकार कहने लगा। राजर्षि नमि के समुचित उत्तर को सुनकर इन्द्र ने फिर उनसे इस प्रकार कहा, अर्थात् इन्द्र ने अपने प्रश्न के अनुरूप उत्तर प्राप्त करके अब दूसरे प्रश्न का आरम्भ किया। यथा एस अग्गी य वाऊ य, एयं डज्झइ मन्दिरं । भयवं! अन्तेउरं तेणं, कीस णं नावपेक्खह? ॥ १२ ॥ एषोऽग्निश्च वायुश्च, एनं दह्यते मन्दिरम् । भगवन् ! अन्तःपुरं तेन, कस्मात् खलु नावप्रेक्षसे? ||१२॥ पदार्थान्वयः-एस—यह—प्रत्यक्ष, अग्गी-अग्नि, य—और, वाऊ वायु, एयं—इस प्रत्यक्ष, मन्दिरं—मन्दिर को, डज्झइ—जला रहे हैं, भयवं! भगवन्, अन्तेउरं—अन्तःपुर, तेणं-किस प्रकार से, कीस-किसलिए, नावपेक्खह—दृष्टिपात नहीं कर रहे, य, णं—(वाक्यालंकार में हैं)। मूलार्थ-भगवन्! अग्नि और वायु के द्वारा ये मन्दिर जल रहे हैं तथा आपका अन्तःपुर भी दग्ध हो रहा है, फिर आप इनकी ओर दृष्टिपात क्यों नहीं कर रहे? टीका मिथिला के जलते हुए मन्दिर अर्थात् राज-महलों और अन्तःपुर की तरफ अंगुली-निर्देश करते हुए इन्द्र ने राजर्षि नमि से कहा कि-'भगवन्! आपके यह मन्दिर और अन्तःपुर जल रहे हैं, श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 312 | णवमं नमिपव्रज्जाणामज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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