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________________ पदार्थान्वयः–वाएण वायु से, हीरमाणम्मि हिल जाने पर, चेइयम्मि—चैत्य में, मणोरमे—मनोरम नाम वाला चैत्य वृक्ष, दुहिया-दुखित, असरणा—शरण-रहित, अत्ता–आर्त हुए, एए—ये प्रत्यक्ष दीखने वाले, खगा—पक्षीगण, कन्दन्ति—आक्रन्दन अर्थात् रुदन करते हैं, भो—(आमन्त्रण अर्थ में है।) । मूलार्थ—परन्तु एक दिन वह मनोरम नाम का चैत्यवृक्ष वायु के वेग से हिल गया, अर्थात् गिर पड़ा, हे इन्द्र! उसके गिर पड़ने से ही असहाय, दुखी और आर्त हुए ये पक्षी गण इस प्रकार का आक्रन्दन कर रहे हैं। टीका इन्द्र ने राजर्षि नमि से जो प्रश्न किया है उसका आशय स्पष्ट है। वह कहता है कि आज मिथिला में जितना भी आर्तनाद हो रहा है उसके कारण भी आप ही हैं। यदि आप दीक्षा के लिए घर से न निकलते तो ये पुरवासी लोग कभी इतने दुखी न होते, अतः आपका प्रव्रज्या में प्रवृत्त होना ही इनके दुख का मूल हेतु है। यदि आप दीक्षा का विचार छोड़ दें तो ये लोग फिर पूर्ववत् सुखी हो सकते हैं, इसलिए इनके सुख अथवा दुख के कारण आप ही हैं। इन्द्र के इस आशय को समझ कर बुद्धिमान राजर्षि ने जो उत्तर दिया है वह भी बड़ा मार्मिक और हृदयग्राही है। राजर्षि नमि कहते हैं कि- "हे इन्द्र! मिथिला के समीपवर्ती इस रमणीय उद्यान में मनोरम नाम का यह बड़ा ही सुन्दर और विशाल वृक्ष था, इसकी शीतल छाया में हजारों जीवों को विश्राम मिलता था, अनेकविध पक्षियों को यह आश्रय-स्थान बना हुआ था। इसके सुगन्धित पुष्पों और स्वादिष्ट फलों से अनेक जीवों को पोषण मिलता था। अधिक क्या कहें. इसके द्वारा अनेक असहाय जीवों का निर्वाह होता था। परन्तु दैवयोग से आज इस वृक्ष की वह दशा नहीं रही, वायु के प्रबल वेग ने उसे जड़ से हिलाकर नीचे गिरा दिया है। अब वह न फल देने में समर्थ है, न छाया देने में सहायता कर सकता है और न ही किसी को आश्रयं प्रदान करने की अब उसमें शक्ति है। वृक्ष के इस प्रकार गिर जाने से उसके आश्रय में रहने वाले ये पक्षी गण भी निराश्रित हो गए हैं। जब इनका आश्रय नष्ट हो गया तब असहाय होने से इनका दुखी होना और आर्तनाद करना स्वाभाविक है, क्योंकि आधार पर ही आधेय की स्थिति निर्भर होती है। जब आधार ही न होगा तो आधेय कहां रह सकेगा? अतः ये पक्षी गण अपने दुख के लिए यदि वृक्ष को उपालम्भ दें तो यह उनकी भूल है, क्योंकि वृक्ष का इसमें कोई भी दोष नहीं है। वह तो जब तक स्थिर और हरा-भरा रहा तब तक उसने इन सब पक्षियों को उदारता पूर्वक आश्रय दिया। इसलिए वास्तव में इन पक्षियों का जो आक्रन्दन है उसका कारण इनके सुख का विनाश है। ये तो अपने अतीत के सुख को रो रहे हैं, इसमें वृक्ष का कोई दोष नहीं है। राजर्षि नमि ने इन्द्र को समुचित उत्तर देते हुए जो कुछ कहा है उसका आशय स्पष्ट है। वे मिथिला नगरी को उद्यान और उद्यान के रमणीय वृक्ष के स्थानापन्न अपने आपको बता रहे हैं तथा पक्षियों के समान उनका स्वजन-वर्ग है एवं तीव्र वैराग्य ही वायु का झोंका है। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 311 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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