________________
से पूर्ववर्ती हो अथवा जिसके बिना कार्य की उत्पत्ति ही न हो सके। जैसे घट यह कार्य है और मृत्तिका, कुम्हार तथा दण्ड-चक्र आदि कारण हैं, क्योंकि ये सब घट से प्रथम विद्यमान होते हैं और इनके बिना घट की उत्पत्ति भी नहीं हो सकती है ।
इन्द्र के हेतु और कारण - गर्भित प्रश्न को सुनकर उसके अनुरूप उत्तर देते हुए राजर्षि नमि इन्द्र के प्रति जो कुछ कहा अब उसी का वर्णन निम्नलिखित गाथाओं में सूत्रकार करते हैं। राजर्षि नमि ने कहा
मिहिलाए चेइए वच्छे, सीयच्छाए मणोरमे । पत्तपुप्फफलोवेए, बहूणं बहुगुणे सया || ६ || मिथिलायां चैत्ये वृक्षः, शीतच्छायः मनोरमः । पत्रपुष्पफलोपेतः, बहूनां बहुगुणः सदा || ६ ||
है ।
पदार्थान्वयः – मिहिलाए – मिथिला में, चेइए – चैत्य, वच्छे वृक्षों से पूर्ण, सीयच्छाए— शीतल छाया से युक्त, मणोरमे —— मनोरम नाम वाला चैत्य है, पत्तपुप्फफलोवेए–पत्र, पुष्प और फलों से युक्त, बहूणं — बहुत पक्षियों आदि का बहुगुणे - बहुत गुण वाला, सया – सदा उपकार करने वाला मूलार्थ - मिथिला नगरी के चैत्य' अर्थात् उद्यान में मनोरम नाम का एक वृक्ष है। कि पत्र-पुष्प और फलों से युक्त एवं अनेकविध पक्षिगणों को सदा आश्रय देने वाला है, अथवा मिथिलानगरी के समीप पत्र, पुष्प और फलयुक्त वृक्षों से परिपूर्ण अतिरमणीय एक दैत्य अर्थात् उद्यान है जो कि अनेकविध पक्षिगणों का पोषक एवं आश्रयदाता है, तथा विशेष शोभायुक्त होने से उसका नाम भी मनोरम ही है ।
पुनः उसी उद्यान रूप अपने जीवन का वर्णन करते हुए राजर्षि नमि कहते हैं— वाएण हीरमाणम्मि, चेइयम्मि मणोरमे
>
दुहिया असरणा अत्ता, एए कंदंति भो ! खगा ॥ १० ॥ वातेन ह्रियमाणे, चैत्ये मनोरमे दुःखिता अशरणा आर्त्ताः, एते क्रन्दन्ति भोः ! खगाः ॥ १०॥
तुम्हारे निकलने पर ही यह भयानक कोहराम सुनाई दे रहा है, अतः इन भयानक शब्दों का कारण आपका निकलना है। यदि आप दीक्षा ग्रहण न करें तो ये भयानक शब्द भी सुनाई न पड़े। सारांश यह है कि आप धर्मात्मा पुरुष हैं, आपको इस प्रकार की आर्त्त-रौद्र क्रियाओं का निमित्त-भूत नहीं होना चाहिए, अन्यथा आपकी महत्ता में लांछन लग जाएगा।
१. 'उद्याने देवगेहे च वृक्षे चैत्यमुदाहृतम्' – चैत्य शब्द उद्यान, देवगृह और वृक्ष अर्थ में ग्रहण किया जाता है। सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में चैत्य शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गई है— चितिरिहेष्टिकादिश्चयस्तत्र साधुः योग्य-श्चित्यः स्वार्थेऽणि चैत्यस्तस्मिन् — कोर्थः ? अधोबद्धपीठिके उपरिचोच्छितपताके —— मनोरमे — मनोऽभिरति हेतौ को इति शेषः, अर्थात् जिस वृक्ष के नीचे ईंटों का चबूतरा बना हुआ हो और ऊपर पताका—झंडी बंधी हो उस वृक्ष को चैत्य कहते हैं और मन को अति आनन्द देने वाला होने से वह मनोरम कहलाता है
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 310 /
णवमं नमिपवज्जाणामंज्झयणं