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एनमर्थं निशम्य, हेतु कारणनोदितः ततो नमी राजर्षिः, देवेन्द्रमिदमब्रवीत् ॥ ८ ॥
पदार्थान्वयः—–एयमट्ठं—–—इस पूर्वोक्त अर्थ को, निसामित्ता — सुन करके, हेऊकारण — हेतु और कारण से, चोइओ–प्रेरित किया हुआ, तओ-तदनन्तर, नमी रायरिसी – राजर्षिनमि, देविन्दं—देवेन्द्र के प्रति, इणं - यह, अब्बवी — कहने लगा ।
मूलार्थ — इसके अनन्तर इन्द्र के द्वारा किए गए प्रश्न को सुनकर उसके द्वारा हेतु और कारण से प्रेरित किया गया राजर्षि नमि इन्द्र के प्रति इस प्रकार कहने लगा ।
टीका - इन्द्र की बात को सुनकर इन्द्र के द्वारा हेतु और कारण से प्रेरित किए जाने पर राजर्षि नमि ने उसके प्रश्न का उत्तर देने के लिए इन्द्र से जो कुछ कहा उसका वर्णन आगे किया जाएगा।
यहां पर हेतु और कारण से प्रेरित किए जाने का तात्पर्य यह है कि जो प्रश्न हेतु और कारण गर्भित होता है वह विचारणीय और उत्तर देने के योग्य समझा जाता है । इन्द्र का जो प्रश्न है वह भी हेतु और कारण - गर्भित है, इसलिए उसका उत्तर देना राजर्षि नमि के लिए परम आवश्यक था । इसके विपरीत राजर्षि नमि के पास आकर इन्द्र यदि हेतु और कारण से शून्य कोई मूर्खता भरा प्रश्न करता तो राजर्षि नमि उसका उत्तर देने में कभी प्रवृत्त न होते, क्योंकि वाद के विषय में न्यायशास्त्र ने हेतु और कारण को ही प्रधान स्थान दिया है । यद्यपि सामान्य-दृष्टि से तो हेतु और कारण दोनों पर्यायवाची शब्द ही हैं, परन्तु विशेष दृष्टि से इन दोनों में भेद है, इसीलिए सूत्रकार ने यहां पर दोनों का उल्लेख किया है।
साध्य के साधक को हेतु कहते हैं । यथा यदि पर्वतगत वह्नि साध्य है तो धूम हेतु है । परार्थानुमान के पांचों * * अवयवों में इसका दूसरा स्थान है। कारण उसका नाम है जो नियमतः कार्य
★ १. नव्य नैयायिकों ने अनुमान दो प्रकार का माना है। एक स्वार्थानुमान, दूसरा परार्थानुमान । अपने लिए जो हो, वह स्वार्थानुमान और दूसरों के लिए जिसका प्रयोग किया जाए वह परार्थानुमान कहलाता है।
★★२. प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन, ये पांचों परार्थानुमान के अवयव कहे जाते हैं।
१ – पक्ष की स्थापना का नाम प्रतिज्ञा है । २ – साध्य के साधक को हेतु कहते हैं । ३ – हेतु और साध्ययुक्त वस्तु का दृष्टांत उदाहरण है । ४ – उदाहरण से साध्य का संयोग करना उपनय है। ५ — हेतु, उदाहरण और उपनय के द्वारा साध्य का निश्चय करना निगमन कहलाता है । इन्द्र ने राजर्षि नमि के प्रति जो प्रश्न किया है, उसमें ये पांचों ही संघटित हैं । यथा ( प्रतिज्ञा ) तू धर्मात्मा है, इसलिए तुम्हें नगरी अथवा कुटुम्ब आदि परिवार का परित्याग करके दीक्षित होना उचित नहीं । (हेतु) क्योंकि सारे पौरजन मर्मभेदी कोहराम मचा रहे हैं। व्यतिरेकी (उदाहरण) जहां पर इस प्रकार का आक्रन्दन या कोहराम होता है वहां पर धर्मात्मा पुरुष निमित्त भूत नहीं बनते, जैसे कि हिंसादि कर्म में उनकी प्रवृत्ति नहीं होती। जिस प्रकार हिंसा के समय आक्रन्दन होता है उसी प्रकार का क्रन्दन यहां पर भी हो रहा है।
(उपनय) अतएव इन पूर्वोक्त कारणों से तुम्हारा घर से निकलना अयोग्य है— योग्य नहीं ।
(निगमन) तुम्हारे निकलने से यह कोहराम मचा, इसलिए तुम्हारा निकलना अयोग्य ठहरा, जैसे हिंसादि व्यापार में आक्रन्दन होता है वैसे ही तुम्हारे निकलने से हो रहा है। उन आक्रन्दनादि शब्दों के भय से जैसे हिंसा आदि कर्मों का परित्याग किया जाता है, वैसे ही दीक्षा का भी परित्याग कर देना चाहिए, क्योंकि फिर इस प्रकार के शब्द न होंगे। दूसरा शब्द है कारण, उसके विषय में उदाहरण इस प्रकार हैं—
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 309 1 णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं