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________________ हुए, अर्थात् दीक्षित होने लगे तब प्रथम देवलोक का स्वामी इन्द्र ब्राह्मण का रूप बनाकर उनके पास आया और उनसे यह वक्ष्यमाण वचन कहने लगा । इन्द्र ने राजर्षि नमि से जो कुछ कहा उसका वर्णन आगामी गाथाओं में आएगा। इन्द्र का राजर्षि नमि के पास आने का बड़ा ही विलक्षण अभिप्राय है । इन्द्र इस बात की स्पष्ट रूप से परीक्षा करना चाहता है कि राजा नमि को जो वैराग्य हुआ है जिसके कारण वह दीक्षा ग्रहण करने के लिए उद्यत हुए हैं—वह अन्तःकरण से है या बाहरी दिखावे की चेष्टामात्र ही है? यद्यपि यह काम वह किसी अन्य देवता के द्वारा भी करवा सकता था, परन्तु स्वयं जिस बात का अनुभव किया जाए उसका महत्व बहुत अधिक होता है । वस्तु ज्ञान की जो स्पष्टता अनुभव द्वारा होती है वह श्रवण द्वारा कदापि नहीं हो सकती, इसीलिए अपने किसी अनुचर को न भेजकर इन्द्र स्वयं देवलोक से आया । प्रव्रज्या-स्थान को उत्तम बताने का तथ्य यह है कि 'वास्तव में गुणों की उत्कृष्टता दीक्षा में ही रही हुई है, अतः यही उत्तम स्थान है' यह भली भान्ति विदित हो सके । अब इन्द्र ने जो कुछ पूछा है उसी का निम्नलिखित गाथाओं में दिग्दर्शन कराया जाता हैकिण्णु भो! अज्ज मिहिलाए, कोलाहलगसंकुला । सुव्वन्ति दारुणा सद्दा, पासासु गिहेसु य ॥ ७ किन्नु भो! अद्य मिथिलायां, कोलाहलक्रसंकुलाः । श्रूयन्ते दारुणाः शब्दाः, प्रासादेषु गृहेषु च ? ॥ ७ ॥ पदार्थान्वयः–किं—क्यों, णु – (वितर्क अर्थ में है), भो- (आमंत्रण) – हे नमे ! अज्ज - आज, मिहिलाए – मिथिला में, कोलाहल – कोलाहल से, संकुला - व्याप्त, सद्दा-शब्द, दारुणा — कठिन, पासाएसु—प्रासादों में—राज - भवनों में, य — और, गिहेसु – सामान्य घरों में, सुव्वन्ति - सुने जा रहे हैं । मूलार्थ — हे नमे ! आज मिथिला में इतना कोहराम क्यों मचा हुआ है ? राजमहलों तथा सामान्य घरों में इतने दारुण शब्द क्यों सुनाई पड़ रहे हैं ? टीका- राजर्षि नमि को सम्बोधन करके इन्द्र ने पूछा कि हे महाराज ! मिथिला नगरी में आज इतना कोलाहल क्यों हो रहा है? आम घरों में तथा राजमहलों में एवं आने-जाने के मार्गों में हृदय विद्रावी जो आर्त्तनाद सुनाई दे रहे हैं, उनका क्या कारण है ? आप जैसे नीतिवान शासक के होते हुए इस प्रकार के शब्दों का सुनाई पड़ना कुछ योग्य प्रतीत नहीं होता । इसके अनन्तर क्या हुआ, अब इसी विषय में कहते हैं एयमट्ठ निसामित्ता, हेऊकारणचोइओ । तओ नमी रायरिसी, देविन्दं इणमब्बवी ॥ ८ ॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 308 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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