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________________ पदार्थान्वयः –— कोलाहलगभूयं —- कोलाहल का शब्द, आसी— हुआ, मिहिलाए — मिथिला में, पव्वयन्तम्मि — दीक्षा लेने के समय, तइया — उस समय, रायरिसिम्मि — राजर्षि, नमिम्मि —– नमि के, अभिणिक्खमंतम्मि — घर से निकल जाने पर । मूलार्थ - राजर्षि नमि के दीक्षा के लिए घर से निकलने पर मिथिला नगरी में बड़ा भारी कोहराम मच गया । टीका-दीक्षा के निमित्त राजर्षि नमि के घर से निकल जाने और उद्यान की तरफ प्रयाण करने पर मिथिला में कोहराम - सा मच गया। लोग ' हा तात ! हमें छोड़कर कहां जा रहे हो' इस प्रकार का क्रन्दन करते हुए पीछे-पीछे जा रहे थे। जिसको जिसका कुछ सहारा होता है वह उसका वियोग होने पर अवश्य शोकातुर हो जाता है, क्योंकि जो सुख उसे प्राप्त था उसका अब विनाश हो रहा है, इसलिए राजा नमि के प्रव्रजित होने के समय प्रजा का उससे प्राप्त होने वाले सुखों का स्मरण करके आक्रंदन करना एक मानव - प्रकृति - सिद्ध — स्वाभाविक सी बात है । यद्यपि नाम अभी तक राजा ही हैं, तथापि शास्त्रकार ने उनको जो ऋषि कहा है, वह भावी नैगमनय की अपेक्षा से कहा है। वे राजा होते हुए भी काम-क्रोधादि कषायों के निग्रह करने में प्रायः ऋषियों की तरह ही रह रहा था, इसीलिए उन्हें ऋषि कहा गया है। कहा भी है 'कामः क्रोधस्तथा लोभः, हर्षो मानो मदस्तथा । षड्वर्गमुत्सृजेदेनं, यः सदा सः सुखी भवेत् ॥' अर्थात्–काम्, क्रोध, लोभ, हर्ष, मान और मद इन षड्विध अन्तरंग शत्रुओं परित्याग कर देता है, वह सदा ही सुखी रहता है। * अब इसके बाद का वृत्तान्त कहते हैं संसर्ग का जो अब्भुट्ठियं रायरिसिं पव्वज्जाठाणमुत्तमं । सक्को माहणरूवेणं, इमं वयणमब्बवी ॥ ६ ॥ अभ्युत्थितं राजर्षि, उत्तमं प्रव्रज्यास्थानं (प्रति) | शक्रो ब्राह्मणरूपेण, इदं वचनमब्रवीत् ॥ ६ ॥ पदार्थान्वयः —— अब्भुट्ठियं — उद्यत हुए, रायरिसिं— राजर्षि को, पव्वज्जाठाणं – दीक्षास्थान, उत्तमं— उत्तम, सक्को – इन्द्र, माहणरूवेणं - ब्राह्मण के वेष में आकर, इमं - यह, वयणं — वचन, अब्बवी - कहने लगा । " मूलार्थ- — उत्तम दीक्षा-स्थान के लिए उद्यत हुए राजर्षि के पास आकर इन्द्र ने ब्राह्मण के वेष में यह वक्ष्यमाण – आगे कहे जाने वाले वचन कहे । टीका- जब राजर्षि नमि उत्तम दीक्षास्थान – ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप स्थान के लिए उद्यत श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 307 णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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